परिसीमन से पहले जम्मू कश्मीर को राज्य का दर्जा लौटाया जाए: वजाहत हबीबुल्लाह

नयी दिल्ली : जम्मू एवं कश्मीर में चुनावी क्षेत्रों के पुन:निर्धारण के मुद्दे पर छिड़ी बहस के बीच पूर्व आईएएस अधिकारी वजाहत हबीबुल्लाह, जो देश के पहले मुख्य सूचना आयुक्त थे और जो घाटी के आठ जिलों में विभागीय आयुक्त रह चुके हैं, ने परिसीमन की प्रक्रिया शुरू करने से पहले राज्य का दर्जा वापस दिए जाने की पुरजोर वकालत की है।

इंडिया न्यूज स्ट्रीम से बातचीत में श्री हबीबुल्लाह ने लगभग दो साल पहले केंद्र सरकार की अनुच्छेद 370 निरस्त करने की कारवाई को भी “अलोकतांत्रिक” करार दिया। उनका कहना था कि यह बदलाव राज्य में लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को विश्वास में लेकर किया जाना चाहिए था।

यह पूछे जाने पर कि क्या वह कश्मीर के राजनीतिक दलों के समर्थन में हैं जो परिसीमन और चुनाव को राज्य को राज्य का दर्जा वापस मिलने तक स्थगित रखना चाहते हैं, उन्होंने कहा, “मैं राजनीतिक नजरिए से नहीं कह रहा, एक नौकरशाह के रूप में मुझे लगता है कि प्रशासनिक तार्किकता यही कहती है कि जम्मू एवं कश्मीर में चुनावी क्षेत्रों का परिसीमन राज्य का दर्जा वापस दिए जाने के बाद किया जाए।”

उन्होंने कहा कि परिसीमन अच्छा है क्योंकि इससे उन्हें बेहतर प्रतिनिधित्व मिल सकता है जिन्हें लगता है कि उन्हें समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला लेकिन चुनाव और परिसीमन राज्य का दर्जा दिए जाने के बाद होने चाहिए, पहले नहीं। लोकप्रिय मांग चुनाव के राज्य में कराने की है, केंद्र शासित प्रदेश में नहीं।

एक संबंधित सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि जम्मू एवं कश्मीर को इसका पुराना दर्जा वापस दिया जाना चाहिए और नई विधानसभा चुने जाने तक राज्यपाल शासन जारी रह सकता है। उन्होंने कहा, “इस तरह पहले राज्य का दर्जा दिया जाए, फिर परिसीमन किया जाए और फिर चुनाव करवाए जाएं। यही तार्किक तरीका है और ऐसा ही दूसरे प्रदेशों में भी किया जाता है।”

घाटी में परिसीमन का मुद्दा हमेशा से संवेदनशील रहा है क्योंकि माना जा रहा है कि इससे हिंदू प्रभाव वाले जम्मू को विधानसभा में अधिक सीटें मिलेंगी। भाजपा जैसी पार्टियों का कहना है कि फारूक अब्दुल्लाह सरकार के कार्यकाल में चुनावी क्षेत्रों के पुन:निर्धारण पर रोक लगा दिए जाने से जम्मू को समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला।

जम्मू एवं कश्मीर में परिसीमन 1995 में जस्टिस केके गुप्ता आयोग की देखरेख में किया गया था, जब राज्य में राष्ट्रपति शासन था। उसके बाद यह प्रक्रिया 2005 में होनी थी लेकिन 2002 में फारूक अब्दुल्लाह सरकार ने जम्मू एवं कश्मीर प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1957 और जम्मू कश्मीर के संविधान की धारा 47 (3) में संशोधन कर 2026 तक परिसीमन पर रोक लगा दी। अब जम्मू एवं कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 के अनुसार जम्मू एवं कश्मीर विधानसभा में सात सीटें जोड़ी जाएंगी जिससे कुल संख्या 83 से बढ़कर 90 हो जाएगी। जम्मू एवं कश्मीर में मुख्य धारा की पार्टियों की प्रमुख चिंता है कि परिसीमन के बाद जम्मू का प्रतिनिधित्व बढ़ जाएगा और कश्मीर का नहीं जिससे उनकी चुनावी संभावनाओं पर असर पड़ेगा।

हालांकि, हबीबुल्लाह का मानना है कि उनका यह डर सही नहीं है क्योंकि परिसीमन की प्रक्रिया में जम्मू के मुस्लिम प्रभाव वाले इलाकों का भी प्रतिनिधित्व बढ़ेगा। कश्मीर के जिलों में, पिछली जनगणना में अनंतनाग ने 38.58 फीसदी दशकीय वृद्धि दर्शाई है। उसके बाद गंदरबाल का नंबर आता है 36.50 फीसदी वृद्धि के साथ। इन दो जिलों के बाद उत्तर पश्चिम में कुपवारा और जम्मू में मुस्लिम बहुल जिले हैं। सर्वाधिक आबादी जम्मू की है लेकिन उसके बाद श्रीनगर,, अनंतनाग और बारामुला आते हैं जो सभी कश्मीर में आते हैं।

उनकी राय में आबादी के आधार पर हों या आकार के आधार पर चुनाव क्षेत्रों के पुन:निर्धारण से लोगों को कोई नुकसान नहीं होने वाला।

उन्होंने परिसीमन आयोग के राज्य में आने का स्वागत किया और कहा कि पहले आयोग दिल्ली में बैठता था पर अब वह परिसीमन कि प्रक्रिया के लिए जम्मू एवं कश्मीर के लोगों के विचारों का संज्ञान ले रहा है, जैसा कि होना भी चाहिए।

यह पूछने पर कि जम्मू एवं कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370 हटाया जाना गलत लगता है, श्री हबीबुल्लाह ने कहा, “हाँ! क्योंकि, जैसा कि ओमर अब्दुल्लाह ने कहा कि अनुच्छेद 370 के हटाए जाने ने राज्य के देश में शामिल होने पर ही सवालिया निशान लगा दिया था क्योंकि इसी अनुच्छेद के जरिए राज्य भारत का हिस्सा बना था।” उन्होंने कहा कि इस संदर्भ में इंदिरा-शेख करार में जिस एक बात पर आपत्ति दर्शायी गई थी वह अनुच्छेद 370 को कमजोर किया गया था। उसके बाद जस्टिस देवीदास ठाकुर आयोग नियुक्त किया गया था उन सभी केन्द्रीय कानूनों कि समीक्षा के लिए जो जम्मू एवं कश्मीर पर लागू किए गए थे और उन्हें 1953 के मूल समझौते के अनुरूप लाने के लिए।

श्री हबबिबुलाह ने कहा, “केंद्र के लिए लोकतांत्रिक और संवैधानिक रास्ता लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार से अनुच्छेद 370 पर चर्चा करना था, जिसमें अनुच्छेद को निरस्त करने और अनुच्छेद 371 लाने को शामिल किया जा सकता था।”

उन्होंने कहा कि वह भारतीय संविधान के वर्तमान विकास के अनुरूप इसे लाने के लिए संशोधित कर सकते थे।

संविधान के अनुसार, जम्मू एवं कश्मीर के दर्जे में कोई भी बदलाव राज्य सरकार से चर्चा के बाद किया जाना चाहिए पर केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 तब समाप्त कर दिया जब राज्य राष्ट्रपति शासन के तहत था और राज्यपाल की सहमति को राज्य की सहमति नहीं माना जा सकता क्योंकि राज्यपाल केंद्र का ही प्रतिनिधि है।

उन्होंने कहा, “बदलाव प्रभावित होने वालों से चर्चा के बाद होना चाहिए था, पर उन्होंने वही किया जैसे कि कृषि कानूनों के मामले में किया गया, प्रतिभागियों के विचारों की अनदेखी करते हुए।”

-इंडिया न्यूज स्ट्रीम

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