उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में अपनी एक व्यवस्था में दोहराया है कि देश में कानून सभी के लिये एक समान है और गरीबों तथा अमीरों के लिये अलग अलग कानून नहीं हो सकते। न्यायालय का यह फैसला पढ़ने और सुनने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन क्या वास्तव में ऐसा होता है। शायद नहीं। जमानत के मामलों में ही नहीं बल्कि भांति भांति के मुकदमों में अक्सर यह देखा गया है कि गरीब व्यक्ति को न्याय के लिये कई कई बरस ठोकरें खानी पड़ती हैं जबकि साधन संपन्न और अमीर वर्ग के वादकारियों के मामले में ऐसा नहीं होता है।
न्याय के इंतजार में आम आदमी की स्थिति का अनुमान हाल ही में दिल्ली की कड़कड़डूमा अदालत में हुई एक घटना से लगाया जा सकता है जहां ‘तारीख पर तारीख’ से हताश और निराश व्यक्ति ने अदालत में काफी तोड़फोड़ की थी।
कमोबेश जनहित याचिकाओं के मामले में भी इसी तरह की स्थिति देखने को मिलती है। जनहित याचिकाओं पर न्यायालय में तत्परता से सुनवाई होती है लेकिन सामान्य मुकदमों की सुनवाई किसी न किसी आधार पर टल जाती है। यह भी सही है कि कई बार न्यायालय निराधार और बेबुनियाद दलीलों के साथ जनहित याचिका दायर करने वाले संगठनों और व्यक्तियों पर जुर्माना भी लगाती है।
न्यायमूर्ति धनंजय वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम आर शाह ने हाल ही में मध्य प्रदेश में कांग्रेस के नेता दीपक चौरसिया की हत्या के मामले में बसपा विधायक रामबाई के पति गोविंद सिंह की जमानत रद्द करते हुए अपने फैसले मे सख्त टिप्पणियां कीं। पीठ ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि देश में ऐसा नहीं हो सकता कि अमीर, शक्तिशाली और राजनीतिक पहुंच वालों के लिए एक व्यवस्था और संसाधनों से वंचित आम आदमी के लिए दूसरी व्यवस्था हो।
न्यायालय ने 33 पेज के फैसले में अपनी भावनाएं और सोच स्पष्ट की है लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं होता है। अगर किसी व्यक्ति के प्राणों की रक्षा से जुड़ा मामला हो तो समझ में आता है कि न्यायालय किसी भी समय ऐसे प्रकरण की सुनवाई कर सकती है और उसने ऐसा किया भी है। लेकिन सामान्य परिस्थितियों में भी ऐसा हो तो जनता के मन में देश में दो तरह की न्यायिक व्यवस्था होने की धारणा बनना स्वाभाविक है।
देश का कानून भले ही सभी के लिए एक समान होने का दावा किया जाता हो लेकिन जब व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सवाल होता है तो यही न्यायपालिका आरोपी को जमानत देने के मामले में देर रात भी सुनवाई कर लेती है। वजह, आरोपी प्रभावशाली उद्योगपति या किसी राजनेता का पुत्र या खुद राजनेता ही होते हैं।
उच्चतम न्यायालय ने सितंबर, 1986 में देश के एक जाने माने उद्योगपति ललित मोहन थापर को आधी रात में जमानत दी जिसे लेकर काफी शोरगुल हुआ था। यही नहीं, मद्रास उच्च न्यायालय ने जून, 2018 में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम के पुत्र, अब सांसद, कार्ति चिदंबरम को भी इसी तरह देर रात अग्रिम जमानत दी थी।
उद्योगपति ललित मोहन थापर (अब दिवंगत) फेरा मामले में गिरफ्तार किए गए थे। उच्चतम न्यायालय ने पांच सितंबर, 1986 की मध्य रात्रि में ही उनकी याचिका पर सुनवाई कर उन्हें जमानत दे दी थी। यह संभवत: पहला अवसर था जब शीर्ष अदालत ने किसी आरोपी की जमानत याचिका पर सुनवाई करके उसे मध्य रात्रि में जमानत ही दी थी।
यह घटना लंबे समय तक चर्चा का केन्द्र रही और इस दौरान शीर्ष अदालत में सामान्य आरोपियों की जमानत की याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान इसका हवाला भी दिया जाता रहा। न्यायालय में बार बार यही दलील दी गयी कि तत्काल राहत के लिए ऐसे मामलों में अमीरों और गरीबों के बीच भेदभाव होता है।
इस घटना के चंद महीनों बाद 19 नवंबर, 1986 को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश पी एन भगवती की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने जमानत और अग्रिम जमानत के मामले में किसी भी तरह के भेदभाव की धारणा को दूर करने का प्रयास किया। संविधान पीठ ने कहा कि न्यायालय हमेशा यही मानता है कि गरीब और वंचित वर्ग के लोग कारोबारियों और उन सरीखे धनवान तथा प्रभावशाली व्यक्तियों की तुलना में प्राथमिकता के हकदार हैं।
संविधान पीठ की इस व्यवस्था और स्पष्टीकरण के बावजूद पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के पुत्र कार्ति चिदंबरम नौ जून, 2018 को मद्रास उच्च न्यायालय से रात 11 बजे अग्रिम जमानत प्राप्त करने में कामयाब हो गए थे। यह मामला भी काफी चर्चा में रहा।
कार्ति चिदंबरम को इसी तरह रात में अग्रिम जमानत दिए जाने पर भी आवाज उठीं और सवाल उठे कि क्या आपराधिक मामले में गिरफ्तारी की आशंका के आधार किसी आम नागरिक को देर रात इस तरह की राहत मिल सकती है।
यही नहीं, बॉलीवुड अभिनेता सलमान खान को निचली अदालत ने छह मई, 2015 को हिट एंड रन मामले में दोषी ठहराते हुए पांच साल की कैद और 25,000 रूपए जुर्मान की सजा सुनाई थी। सलमान खान को तत्काल ही हिरासत में ले लिया गया था। लेकिन उसी दिन शाम को चंद घंटों के भीतर बंबई उच्च न्यायालय ने उन्हें दो दिन की अंतरिम जमानत दे दी थी। इस तरह यह अभिनेता जेल जाने से बच गया था। यह अपने आप में दोषी व्यक्ति के प्रभाव और पैसे की हैसियत को बयां करता है।
रिपब्लिक टीवी के मुख्य संपादक अर्णब गोस्वामी का मामला एकदम ताजा उदाहरण है। अर्णब को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोपों से संबंधित एक मामले में गिरफ्तार किया गया था लेकिन उनकी जमानत याचिका पर काफी तत्परता से सुनवाई हुयी।
इसके विपरीत, नागरिकता संशोधन कानून विरोधी आन्दोलन के दौरान हुई हिंसा की घटनाओं के संबंध में गिरफ्तार जेएनयू की दो छात्राओं सहित तीन छात्रों को दिल्ली उच्च न्यायालय से जमानत मिलने के बावजूद 48 घंटे तक उनकी रिहाई नहीं हुई थी।
ये घटनाएं अपने आप में बहुत कुछ कहती हैं। न्यायपालिका अगर आम जनता को यह संदेश दे रही है कि कानून सभी के लिए बराबर है तो उसे इस सिद्धांत के प्रति जनता को विश्वास भी दिलाना होगा।