आजकल विवाह बंधन में बंधने की बजाए उन्मुक्त जीवन बिताने का चलन तेजी से बढ़ रहा है। न्यायपालिका ने भी दो अविवाहित वयस्कों को स्वेच्छा से सह-चर में अपना जीवन व्यतीत करने को कुछ शर्तो के साथ मान्यता दे दी है, लेकिन वह इस तरह के जीवन में रहने वाले ऐसे किसी भी जोड़े को मान्यता देने के पक्ष में नहीं है जिनकी गतिविधि सामाजिक तानेबाने को प्रभावित करने वाली हो।
मतलब साफ है अगर ऐसे जोड़े में एक व्यक्ति पहले से शादीशुदा है तो ऐसे किसी भी रिश्ते को सह-जीवन संबंधी न्यायिक व्यवस्था में प्रतिपादित के नियमों के तहत मान्यता नहीं मिल सकती है।
लेकिन देखा जा रहा है कि इस सह-जीवन अर्थात लिव इन रिलेशनशिप का कई जोड़े अनावश्यक लाभ उठाने का भी प्रयास करते हैं। कुछ मामलों में तो यह भी पता चला कि इस तरह के रिश्ते में रहने वाले जोड़ों में एक साथी पहले से ही विवाहित है। निश्चित है इस तरह के सह-जीवन को भारतीय कानून मान्यता नहीं देते हैं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही लिव इन में जीवन गुजार रहे जोड़े को किसी भी प्रकार का संरक्षण प्रदान करने से इंकार कर दिया क्योंकि इस रिश्ते में शामिल महिला पहले से ही विवाहित थी। इस महिला का आरोप था कि उसका पति उसके शांतिपूर्ण जीवन को खतरा पैदा कर रहा है।
इस मामले में उच्च न्यायालय ने सख्त रुख अपनाया और कहा कि सह-जीवन को देश का सामाजिक ताना बाना नष्ट नहीं करना चाहिए। न्यायालय ने इस विवाहित महिला की संरक्षण की याचिका खारिज करने के साथ ही उस पर पांच हजार रूपए का जुर्माना भी किया है।
न्यायालय ने यह कहने में भी संकोच नहीं किया कि विवाहित महिला का इस तरह दूसरे पुरुष के साथ सह जीवन में रहना अवैध है और हिन्दू विवाह कानून के तहत विवाहित कोई भी जोड़ा इस तरह के अवैध रिश्ते के लिये अदालत का संरक्षण नहीं मांग सकता।
यह पहला मौका नहीं है जब न्यायपालिका ने इस तरह के सह-जीवन को सिरे से नकारा है। इससे पहले बंबई, इलाहाबाद, राजस्थान और पंजाब तथा हरियाणा उच्च न्यायालय इस तरह के सह-जीवन के मामले में किसी भी प्रकार का संरक्षण देने से इंकार कर चुके हैं लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय का नजिरया इससे भिन्न रहा है।
यह सही है कि न्याययपालिका ने सह-जीवन के रिश्तों को मान्यता प्रदान की है और वह समय समय पर ऐसे रिश्तों पर अपनी मुहर लगाता रहा है। लेकिन ऐसा करते समय न्यायपालिका ने सह-जीवन अर्थात ‘लिव इन रिलेशन’ के पैमाने पर खरा उतरने के लिये कुछ शर्ते निर्धारित की हैं।
इनमें पहली शर्त ऐसे जोड़े को समाज द्वारा एक दूसरे का जीवन साथी स्वीकार करना, दूसरी शर्त कानूनी दृष्टि से दोनों का विवाह योग्य होना, तीसरी शर्त बिन ब्याहे जीवन गुजारने के बावजूद कानूनी तरीके से वैवाहिक जीवन व्यतीत करने की पात्रता होना है और चौथी शर्त है कि वे स्वेच्छा से लंबे समय से पति पत्नी के रूप में रह रहे हों।
करीब डेढ़ दशक पहले इस तरह के रिश्तों के बारे में यदा कदा ही सुनने को मिलता था महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण कानून लागू होने के बाद सह-जीवन से संबंधित मामले ज्यादा सुर्खियों में आने लगे।
इस कानून की धारा 2 (एफ) लिव इन रिश्ते के मामले में ज्यादा चर्चित हुयी और अंतत: नवबंर 2013 में उच्चतम न्यायालय ने इस प्रावधान की व्याख्या की। न्यायालय ने कहा कि घरेलू हिंसा से सरंक्षण कानून की धारा 2 (एफ) में ‘किसी भी समय’ शब्दों का इस्तेमाल किया गया है और इसका इसका मतलब इस तरह के रिश्ते की अवधि से है जो ‘उचित अवधि और संबंध बरकरार’ रखने के बारे में है।
इस कानून के तहत राहत प्राप्त करने के मामले में न्यायालय की व्यवस्था है कि अगर कोई महिला यह जानते हुये कि उसका साथी पुरुष पहले से विवाहित है, उसके साथ सह-जीवन अपनाती है तो उसे इस कानून के तहत कोई राहत नहीं मिल सकतीं। ऐसे मामले में महिला की स्थिति वैवाहिक रिश्ते में जीवन साथी जैसी नहीं हो सकती क्योंकि लिव इन के सभी मामले वैवाहिक रिश्ते जैसे नहीं हो सकते।
अब सवाल यह है कि अगर ऐसे जोड़ों में एक पक्ष पहले से विवाहित है तो यह रिश्ता क्या कहलायेगा? अगर इस तरह का लिव इन रिलेशन मान्य नहीं है और इस रिश्ते की वजह से पहले से ही विवाहित पक्ष के परिवार के साथ ही इसमें रहने वाले दूसरे पक्ष का भी जीवन भी बुरी तरह प्रभावित होता है। ऐसी स्थिति में इसका समाधान क्या है? इसका समाधान खोजने की जरूरत है। पहली नजर में तो इसका सरल समाधान विवाह-विच्छेद ही नजर आता है। निश्चित ही यह उपाय सहज लगता है लेकिन लिव इन रिलेशन में रहने वाले विवाहित व्यक्ति के आचरण उसके साथ रहने वाले की जिंदगी के भविष्य के बारे में भी सोचने की आवश्यकता है।
इस समय तेजी से नष्ट हो रही वैवाहिक संस्था की रक्षा के लिए जरूरी है कि किसी भी वैवाहिक जीवन को बचाने और इसके साथ ही आधुनिकता की दौड़ में लिव इन रिलेशन की आड़ में सामाजिक ताने बाने को नष्ट करने के प्रयासों पर अंकुश पाने के प्रयास किये जाएं।