2019 में भारत में बेरोजगारी के कारण 2851 आत्महत्याओं के मामले सामने आए जोकि 2016 से 24 फीसदी ज्यादा हैं। 2016 में बेरोजगारी के कारण 2298 आत्महत्याएं हुईं थी। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, 2016 से 2019 तक हर साल बेरोजगारी के कारण होने वाली आत्महत्याओं के मामलों में वृद्धि हुई है। 2016 में जहां बेरोजगारी के कारण होने वाली आत्महत्याओं की संख्या 2298 थी, 2017 में यह संख्या 2404 हो गई, 2018 में यह 2741 हो गई और 2019 में यह आंकड़ा 2851 हो गया।
इस दौरान 14.18 वर्ष की आयु वर्ग के 24,000 से अधिक बच्चों की 2017 से 2019 के बीच आत्महत्या से मृत्यु हुई। सरकार के अनुसार इनमें से 4000 से अधिक मामलों के पीछे का कारण परीक्षा में विफलता थी। आंकड़ों के मुताबिक 2017 से 2019 तक 14.18 साल की 13,325 लड़कियों समेत 24,568 बच्चों की मौत आत्महत्या से हुई।
संसद में पेश किए गए एनसीआरबी डेटा के अनुसार कर्नाटक ने 2019 में बेरोजगारी के कारण सबसे अधिक यानी 553 आत्महत्याएं दर्ज की। इसके बाद महाराष्ट्र (452) और तमिलनाडु (251) क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे। गौर करने वाली बात यह है कि एनसीआरबी के यह आंकड़े देश में कोविड-19 के आने से पहले के हैं। ऐसे में यह आंकड़े आने वाले समय में और भयानक हो सकते हैं।
बेरोजगारी के कारण होने वाली आत्महत्याओं में हर साल होती वृद्धि
जहां एक तरफ आंध्रप्रदेश, हिमांचल प्रदेश, जम्मू-काश्मीर, झारखण्ड, कर्नाटक, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और दिल्ली जैसे राज्यों में बेरोजगारी के कारण आत्महत्या के मामलों में तीव्र वृद्धि देखी गई वहीं दूसरी तरफ असम, छत्तीसगढ़, केरल, मध्य प्रदेश, ओडिशा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में आत्महत्या के मामले काफी हद तक घटे हैं।
चिंताजनक बात यह है कि पिछले कुछ समय में नौकरियों का और नुकसान हुआ है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी महेश व्यास के अनुसार कोविड-19 की दूसरी लहर के कारण एक करोड़ से अधिक भारतीयों ने अपनी नौकरी खो दी है और लगभग 97 प्रतिशत परिवारों की आय में महामारी की शुरुआत के बाद से गिरावट आई है। ऐसे में आने वाले सालों में बेरोजगारी के कारण होने वाली आत्महत्याओं के मामलों में वृद्धि देखने को मिल सकती है।
पिछले कुछ सालों में बेरोजगारी की चोट काफी गहरी रही है। कमजोर विकास संभावनाओं के बीच मौजूदा सरकार के शेष बचे कार्यकाल में बेरोजगारी सबसे बड़ा सिरदर्द है। 2017-18 में सरकार के अपने सर्वेक्षणों के हवाले से यह खबर आई कि भारत की बेरोजगारी दर अपने 45 साल के सर्वोच्च स्तर पर है। यह नोटबंदी के एक साल बाद और जीएसटी लागू होने वाला साल था। इसके बाद 2019 में इससे भी ज्यादा चिंताजनक खबर आई कि 2012 और 2018 के बीच नियोजित लोगों की कुल संख्या में 90 लाख की गिरावट आई। यह आजाद भारत के इतिहास में कुल रोजगार में गिरावट का ऐसा पहला उदाहरण था। आमतौर पर 2.3 प्रतिशत की बेरोज़गारी दर की परम्परा के विपरीत भारत ने नियमित रूप से 6.7 प्रतिशत के करीब बेरोज़गारी दर देखना शुरू कर दिया। बेशक अब इसे कोविड महामारी ने और बदतर बना दिया है।
दूसरी ओर भारत में श्रम भागीदारी दर जो हमें बताती है कि कार्य-आयु 15 से 59 वर्ष समूह के कितने प्रतिशत लोग कार्यबल का हिस्सा बनना चाहते हैं, वैसे भी कम है। कम श्रम शक्ति भागीदारी दर का मतलब कि कम लोग खुद को आर्थिक गतिविधियों के लिए उपलब्ध करा रहे हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में कोविड से पहले भी भागीदारी दर आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं से और यहां तक कि अपने एशियाई प्रतिद्वंदियों से भी काफी कम थी। इसका मतलब यह कि भारत अपने सभी मानव संसाधनों और अपनी युवा आबादी का पूरा फायदा नहीं उठा पा रहा है।
भारत की बेरोजगारी दर के बारे में दो बातें मुख्य हैं। पहली यह कि भारत की बेरोजगारी दर अन्य एशियाई देशों की तुलना में बहुत अधिक है। दूसरा कि भारत की उच्च बेरोजगारी दर कम श्रम शक्ति भागीदारी दर के बावजूद है। दूसरे शब्दों में, भले ही कामकाजी आयु वर्ग के प्रत्येक 100 भारतीयों में से केवल 40 ही नौकरी की तलाश में हैं, लेकिन हमारी अर्थव्यवस्था तब भी उनके लिए रोजगार पैदा करने में असमर्थ है।
भारत से श्रम भागीदारी दर में लगभग दोगुना होने के बावजूद इंडोनेशिया में बेरोजगारी दर भारत से काफी कम है। असल में भारतीय अर्थव्यवस्था ने नौकरियां पैदा करने की बजाय करीब 2.2 करोड़ नौकरियां खत्म कर दी हैं। ऐसे में आने वाले भविष्य में बेरोजगारी के कारण हो रही आत्महत्याओं के मामलों में कितनी वृद्धि होगीए यह तो आने वाला वक्त बताएगा। लेकिन फिलहाल के लिए सुधार अनिवार्य हैं।