नई दिल्ली: अभी कल ही विश्व आदिवासी दिवस मनाया गया। उधर दक्षिणी राजस्थान से सटे गुजरात,मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में आदिवासी समाज के कतिपय संगठनों द्वारा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय गृह मन्त्री अमित शाह के गृह प्रदेश गुजरात के नाक के नीचे धीरे-धीरे एक नए भील प्रदेश का आग़ाज़ होने की खबरें आ रही है। पहलें यह खबरें छन-छन कर आती थी लेकिन अब खुले आम भील प्रदेश बनाने की माँग हो रही है और इस सम्बन्ध में केन्द्र और राज्य सरकारों को ज्ञापन भी दिए जा रहें है।साथ ही प्रस्तावित भील प्रदेश का नक़्शा भी देखा जा सकता है।
विश्वस्त सूत्रों के अनुसार मोदी सरकार का ख़ुफ़िया तन्त्र इस हलचल से वाकिफ़ होगा लेकिन बताया जाता है कि यदि समय रहते केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा इस प्रकार की गतिविधियों पर क़ाबू नहीं पाया गया तों स्थिति बद से बदतर होकर छत्तीसगढ़,झारखण्ड और उत्तर पूर्व में चल रहें अलगावकारी संगठनों की गतिविधियों की तरह बेक़ाबू हो सकती हैं।
पिछलें दिनों दक्षिणी राजस्थान के राष्ट्रीय राजमार्ग आठ पर उदयपुर-अहमदाबाद मार्ग पर आदिवासी बहुल डूंगरपुर ज़िले में जो बवाल मचा और तोड़फोड़,आगजनी एवं आवागमन में रुकावट आई,वे इन सरकारों की आँखें खोलने के लिए पर्याप्त है।
दक्षिणी राजस्थान से लगे गुजरात और मध्य प्रदेश के आदिवासी अंचल तथा महाराष्ट्र के कुछ इलाक़ों को मिला कर भील प्रदेश का गठन करने की माँग कोई नई नहीं है।बताते है कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग के अध्यक्ष एवं कांग्रेस के सांसद तथा राजस्थान सरकार में कई बार मन्त्री रहें भीखा भाई भील ने यह सपना देखा था। वे दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर, डूंगरपुर,बाँसवाड़ा,प्रतापगढ़ चित्तौड़,सिरोही आदि ज़िलों और गुज़रात के सीमावर्ती हिम्मतनगर,शामलाजीपंचमहल,दाहोद, झालोद आदि और मध्य प्रदेश के रतलाम सेलाना,नीमच, मन्दसौर,धार,झाबुआ, अलीराजपुर,शहडोल, खरगोन व बैतूल आदि क्षेत्रों को मिला कर एक नया भील प्रांत बनाना चाहते थे। कालान्तर में गुजरात और मध्य प्रदेश के आदिवासी सांसदों ने भी इस प्रस्ताव का समर्थन किया लेकिन तीनों प्रदेशों में राजनीतिक नेतृत्व और सामाजिक ताना बाना एवं प्रशासनिक तन्त्र के मज़बूत होने तथा आदिवासियों में शिक्षा का प्रसार कम होने से यह माँग दब कर रह गई थी लेकिन अब शिक्षा के बढ़ते प्रसार के साथ-साथ इन क्षेत्रों के अधिकांश सांसद और विधायक होने एवं ज़्यादातर लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों के अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित होने से राजनीतिक चेतना एवं जागरूकता बढ़ने से यह माँग अब धीरे धीरे सिरे चढ़ रही है। कई युवकों ने बक़ायदा इस बारे में शोध पत्र भी प्रकाशित करायें हैं। दरअसल तीनों राज्यों के आदिवासी बहुल वागड़, मालवा और माही गंगा इलाक़ों में बड़ी संख्या में आदिवासी निवास करते है और प्रतिवर्ष राजस्थान के डूंगरपुर और बाँसवाड़ा जिले के सटे सोम,माही और अदृश्य जाख़म नदियों के त्रिवेणी संगम स्थल बेणेश्वर धाम पर प्रतिवर्ष आस्था वश मिलते है ।बेणेश्वर धाम को आदिवासियों का कुम्भ माना जाता है और प्रतिवर्ष माघ शुक्ल पूर्णिमा को यहाँ मेला लगता है जिसमें तीनों प्रदेशों के लाखों आदिवासी शरीक होते है। यह उनका आदर्श मीटिंग स्थल है।
इस अंचल में आदिवासियों के मध्य सामाजिक सुधारों कुरीतियाँ के उन्मूलन, सामाजिक सांस्कृतिक सांस्कृतिक-आर्थिक और राजनीतिक जागृति पैदा करने कर लिए शुरू से कई सन्त महात्मा और सामाजिक कार्यकर्ता और महापुरुष सक्रिय रहें है जिसकी वजह से आज भी किसी प्रकार का व्यसन नहीं करने वाले भगत आदिवासियों के घरों पर और अन्य जगत आदिवासियों के घरों पर अलग अलग रंग की ध्वजा लगाई जाती है। इन महा पुरुषों में कलयुग के देवता और अपने चौपड़ें में अनेक भविष्यवाणी करने वाले मावजी महाराज, सन्त सती सूरमाल दास उनके शिष्य गोविन्द गुरु और उनके अनुयायियों (जिनका स्मारक गुजरात सीमा पर बाँसवाड़ा जिले के मानगढ पहाड़ी पर है) आदि अनेक महापुरुष हुए है।मानगढ़ को आदिवासियों का जलियावाला बाग भी कहा जाता है क्योंकि गोविन्द गुरु के भक्ति और सामाजिक आन्दोलन को अंग्रेजों के ख़िलाफ़ बग़ावत समझ अंग्रेजों ने हज़ारों आदिवासियों को गोलियों से भून दिया था। सन्त महात्माओं की तरह राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी इस अंचल में बहुत काम किया जिसमें समाजवादी नेता मामा बालेश्वर दयाल प्रमुख है जिनका आश्रम मध्य प्रदेश के बामनिया गाँव में था।आदिवासी उन्हें अपना भगवान मानते थे। इसीप्रकार वागड़ गांधी के रूप में विख्यात डूंगरपुर के भोग़ीलाल पण्ड्या और प्रदेश के मुख्यमंत्री रहें हरिदेव जोशी आदि जोकि आदिवासी नही थे ने सेवाश्रमों और गांधी आश्रमों के माध्यम से आदिवासियों के उत्थान के लिए कई काम किए लेकिन अथाह ग़रीबी और पिछड़े पन के कारण आज़ादी के 75 वर्ष के बाद भी इन अंचलों का अपेक्षित विकास नही हो पाया।यहाँ तक उन्हें ईलाज के लिए भी दौड़ कर निकटवर्ती गुजरात या मुंबई की ओर ही जाना पड़ता है। बाँसवाड़ा जिला जैसे कई इलाके ऐसे है जिसके किसी भी कोने में अब तक रेल नहीं पहुँची।किसी वक्त घने जंगलों से घीरे यहाँ के लोग जंगलों पर निर्भर थे। बाद में वे अपनी छोटी छोटी कृषि जोतों पर निर्भर हो गए और कृषि मानसून पर…इसलिए यहाँ हर दूसरा साल सूखा और अकाल से ग्रस्त रहता है।बड़े उध्योग धंधों के अभाव में बेरोज़गारी सूरसा की तरह फैल रही है।आदिवासी आरक्षण का बड़ा लाभ उत्तर पूर्व इलाके के मीना उठा ले गए। यहाँ के आदिवासी और अन्य लोग रोज़गार के लिए गुजरात महाराष्ट्र मध्य प्रदेश और खाड़ी देशों ख़ास कर कुवैत आदि में पलायन को मजबूर है।
इन परिस्थितियों में आदिवासी युवकों का रोष बढ़ता जा रहा है और उनका मानना है कि भीलों की अनेकों पीढ़िया सदियों से शोषण और अन्याय का शिकार रही है। अब इनका विश्वास कांग्रेस और बीजेपी दोनों पार्टियों से उठ रहा है और इस वजह से पिछलें कुछ वर्षों से एक नई राजनीतिक पार्टी भारतीय ट्राइबल पार्टी (बी टी पी) का अभ्युदय हुआ है जोकि गुजरात के साथ दक्षिणी राजस्थान
में कांग्रेस और बीजेपी के प्रभाव वाले इलाक़ों में चुनाव जीत राजनीतिक समीकरणों को प्रभावित कर रहा है। यहाँ के भील आदिवासी शुरू से ही जुझारू रहे है। उनके दम ख़म पर ही शूरवीर महाराणा प्रताप ने मुग़लों की अधीनता कभी स्वीकार नही की और उन्हें लोहे के चने चबाने पर मजबूर किया था।मेवाड़ और वागड़ राजवंशों उदयपुर डूंगरपुर बाँसवाड़ा आदि के राजचिन्हों पर भी भीलों के प्रतीक प्रमुखता से अंकित है।वैसे बताते है कि मेवाड़ से वागड़ आयें राजपूत शासकों से पहलें डूंगरपुर बाँसवाड़ा आदि पर भील राजाओं का क़ब्ज़ा था।इस अंचल के आदिवासी सदैव स्वामिभक्त संवेदनशील और सौहार्द के साथ रहने वाले रहे है । उनकी एक जुटता का कोई सानी नहीं। संकट के समय ढोल की एक थाप और डंकार पर हज़ारों लोग मिनटों के अपने फलों से बाहर निकल एकत्रित हो जाते है।प्रतिकूल हालातों में भी जीने की उनकी जीविषिका बेमिसाल है।
पिछलें दिनों में प्रदेश की राजनीति में भील संस्कृति पर विशेष फ़ोकस है। राजस्थान विधानसभा में डूंगरपुर के विधायक गणेश घोघरा ने एक बयान देकर सबकों चौका दिया कि आदिवासी हिंदू नही है। वहीं भाजपा के क़द्दावर नेता सांसद डॉ किरोड़ी लाल मीणा ने हाल ही जयपुर के एक दुर्ग पर सफ़ेद रंग का आदिवासी झण्डा लहरा कर सनसनी फैलाई।
ऐसा नही है कि इन अंचलों में आदिवासियों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए कोई काम नही हुए । कल और आज में रात दिन का अन्तर साफ़ देखा जा सकता है लेकिन बदलते समय के साथ यह विकास ऊँट के मूँह में जीरे की तरह लगता है। आज भी मूलभूत सुविधाओं के लिए जूझना और महंगाई के साथ बेरोज़गारी उनके असंतुष्ट होने का मुख्य कारण है।ऐसे में यदि समय रहते केन्द्र और राज्य सरकारों ने परिस्थितियों के मर्म को नहीं समझा तो वो दिन दूर नहीं कि गुजरात राजस्थान और महाराष्ट्र का विखण्डन होकर एक नए भील राज्य का प्रादुर्भाव होने को कोई रोक नहीं पायेगा।