सवर्ण वोटों की ख़ातिर ‘माया’ भी ‘राम’ की शरण में

उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी हलचल लगातार तेज़ होती जा रही है। बीजेपी अपनी सरकार बचाने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है। वहीं विपक्षी दलों में समाजवादी पार्टी और बीएसपी और कांग्रेस भी जीत के लिए नए फार्मूले गढ़ रहे हैं। बीएसपी प्रमुख मायावती ने अब अपने दलित वोटरों के साथ ही सवर्णों को बीजेपी से वापस खींचने के लिए धार्मिक कार्ड खेल दिया है। ख़ासकर सवर्ण वोटों की ख़ातिर मायावती भी अब राम की शरण में चली गई हैं।

क्या किया मायावती ने?
सियासी और निजी ज़िंदगी में धार्मिक कर्मकांड से दूर रहने वाली मायावती ने परोक्ष रूप से धार्मिक कार्ड खेला है। उन्होंने अपने सबसे भरोसेमंद सिपहसालार और पार्टी के सबसे बड़े ब्राह्मण चेहरे मिश्रा को अयोध्या का दौरा करा कर पार्टी के राम की शरण में जाने के संकेत दे दिए हैं। मायावती के बेहद क़रीबी सूत्रों का कहना है कि पार्टी का एक बड़ा वोट बैंक ‘राम मय’, ‘मोदी मय’ और ‘योगी मय’ होकर बीजेपी में चला गया है। लिहाज़ा उसे वापस लाने के लिए धार्मिक कार्ड का खेलना ज़रूरी हो गया है।

सतीश मिश्रा को कमान
दरअसल सतीश मिश्रा को आगे करके मायावती ब्राह्मणों के साथ उन सवर्णों को अपने पाले में खींचने की पुरज़ोर कोशिश कर रही हैं जिनके बलबूते 2007 में उन्होंने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। 2007 में मायावती ने सतीश मिश्रा के नेतृत्व में ही पूरे प्रदेश में ब्राह्मणों को जोड़ने के लिए सम्मेलन किए थे‌। साथ ही अन्य जातियों को जोड़ने के लिए भी जातीय आधार पर ‘भाईचारा सम्मेलन’ किए थे। मायावती को इस सोशल इंजीनियरिंग का फ़ायदा 2007 के विधानसभा चुनाव में मिला था। उसी सोशल इंजीनियरिंग को वो नए सिरे से 2022 के चुनाव में भी आज़माना चाहती हैं।

‘राम’ की शरण में ‘माया’
अपने सबसे भरोसेमंद सिपहसालार सतीश मिश्रा के ज़रिए मायावती ने अयोध्या में भगवान राम की शरण ले ली है। शुक्रवार को सतीश मिश्रा ने अयोध्या पहुंचकर सबसे पहले हनुमानगढ़ी में बजरंगबली का दर्शन किया। उसके बाद राम जन्मभूमि पहुंचकर रामलला का आशीर्वाद लिया। उसके बाद सरयू नदी के किनारे पूरे 100 लीटर दूध से मंत्रोच्चारण के साथ दुग्धाभिषेक किया और सरयू आरती में भी शामिल हुए। ये सब कर्मकांड करने के बाद साधु सन्यासियों से मिलकर आशीर्वाद भी लिया। इस सब के बाद ‘प्रबुद्ध वर्ग संवाद, सुरक्षा, सम्मान विचार गोष्ठी’ में शामिल हुए। इसमें इस मुद्दे पर चर्चा की गई कि राज्य में प्रबुद्ध वर्ग यानि ब्राह्मणों का सम्मान, सुरक्षा और तरक़्क़ी कैसे सुनिश्चित हो।

ब्राह्मणों को साधने की क़वायद
दरअसल ‘प्रबुद्ध वर्ग संवाद, सुरक्षा, सम्मान विचार गोष्ठी’ ब्राह्मणों को साधने की क़वायद है। ये बसपा के पुराने कार्यक्रम ‘ब्राह्मण सम्मेलन’ का ही सुधरा हुआ नाम है। 2007 से पहले मायावती ने पूरे प्रदेश में ‘ब्राह्मण सम्मेलन’ किए थे। इस बार इसका नाम बदलकर पूरे प्रदेश में ‘प्रबुद्ध वर्ग विचार गोष्ठी’ आयोजित की जा रही हैं। अयोध्या के फ़ौरन बाद 24-25 जुलाई को अंबेडकरनगर, 26 को प्रयागराज, 27 को कौशांबी, 28 को प्रतापगढ़ और 29 जुलाई को सुल्तानपुर में सम्मेलन होंगे। बसपा की योजना प्रदेश के सभी ज़िलों में ऐसी गोष्ठियां करने की है। इस तरह सतीश मिश्रा का हर ज़िले में दौरा कराके मायावती योगी सरकार से नाराज़ बताए जा रहे हैं ब्राह्मणों को साधने की हर संभव कोशिश कर रही हैं।

नई बोतल में पुरानी शराब
हालांकि मायावती के इस राजनीतिक प्रयोग को नई बोतल में पुरानी शराब बताया जा रहा है। इस तरह का प्रयोग वो 2007 से पहले कर चुकी हैं। लिहाज़ा यह कहा जा रहा है कि इस बार उन्हें बहुत ज़्यादा कामयाबी नहीं मिलेगी। वहीं बसपा के चुनावी रणनीतिकारों का कहना है कि ‘प्रबुद्ध वर्ग’ में अकेले ब्राह्मण नहीं आते, बल्कि समाज का हर पढ़ा लिखा और सामाजिक प्रतिष्ठा रखने वाले लोग आते हैं। यह पूरा तब का प्रदेश की मौजूदा योगी सरकार के क्रियाकलापों से बेहद नाराज़ है। यह नाराजगी ही इस तबके को बीजेपी से दूर ले जाकर बसपा के नज़दीक ला सकती है। इनका दावा है कि बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार में ब्राह्मणों के साथ-साथ अन्य सवर्णों को भी पूरा सम्मान मिला था। ज्यादा दोबारा सरकार बनने पर भी इसमें कोई कमी नहीं आएगी।

योगी सरकार से ब्राह्मणों की नाराज़गी
यूपी योगी आदित्यनाथ से ब्राह्मणों की नाराज़गी जगज़ाहिर है। इसी नाराज़गी को दूर करने के लिए पिछले दिनों बीजेपी में लंबी क़वायद चली। कांग्रेस से तोड़कर जितिन प्रसाद को बीजेपी में लाया गया। जितिन प्रसाद को एक बड़े ब्राह्मण चेहरे के रूप में भी पेश किया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेहद क़रीबी एक ब्राह्मण नेता को पार्टी में उपाध्यक्ष बनाया गया। हालांकि यूपी से मोदी मंत्रिमंडल में शामिल किए गए मंत्रियों में ब्राह्मण सिर्फ़ एक ही है। बाक़ी सब दलित-पिछड़े हैं। लेकिन ब्राह्मण समाज की नाराज़गी दूर करने के लिए योगी सरकार और बीजेपी भी कोई कोर क़सर बाकी नहीं छोड़ रही हैं।

यूपी में बसपा के प्रयोग
उत्तर प्रदेश की सियासत में बीएसपी नए नए प्रयोग करके ही आगे बढ़ी है। उसने जय गठबंधन सरकारों के प्रयोगों के बाद पूर्ण बहुमत की सरकार भी बनाई है। 1989 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी को 13 सीटें मिली थी लेकिन अगले ही 1991 के चुनाव में वह 5 सीटों पर सिमट कर रह गई थी 1993 के विधानसभा चुनाव में काशीराम और मुलायम सिंह ने दलित पिछड़ों का गठबंधन किया। नारा दिया था, ‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम।’ 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव था। दलित पिछड़ों के इस गठजोड़ ने राम रथ पर सवार बीजेपी को धूल चटाते हुए जीत हासिल की थी। यह भी असली का पहला राजनीतिक प्रयोग था जिसमें उसे कामयाबी मिली थी।

दूसरा प्रयोग: संघम् शरणम् गच्छामि
काशीराम और मुलायम सिंह के दलित-पिछड़ों के गठजोड़ से संघ परिवार को बीजेपी का राजनीतिक भविष्य ख़तरे में नज़र आने लगा था। संघ ने दलित पिछड़े गठजोड़ में ऐसी दरार पैदा की कि मायावती को बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बनना बेहतर लगा। एक ही झटके में वो फ़र्श से सीधे अर्श पर पहुंच गईं। सपा-बसपा गठबंधन में जहां वो मुलायम सिंह की पिछलग्गू थीं, वही मुख्यमंत्री बनते हैं मुलायम सिंह के समकक्ष आकर खड़ी हो गईं। प्रदेश की पहली दलित मुख्यमंत्री बनने का ताज उनके सिर बंधा। इस तरह बीएसपी का यह दूसरा राजनीतिक प्रयोग बेहद कामयाब रहा।

तीसरा प्रयोग: कांग्रेस से गठबंधन
पुलिस 1996 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया। कांग्रेस को 125 सीटें दी और खुद 300 सीटों पर चुनाव लड़ा। इस प्रयोग से बीएसपी को सीटों और वोटों के प्रतिशत में कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ, लेकिन यह साबित हो गया कि सपा-बसपा गठबंधन से जो उसे जो 67 सीटें मिली थी वो उसकी अपनी ताक़त बन चुकी है। क्योंकि 1996 में कांग्रेस के साथ गठबंधन के बावजूद उसे 67 सीटें ही मिली थी। चुनाव के बाद यह गठबंधन टूट गया। बसपा ने बीजेपी के साथ 6-6 महीने के फार्मूले पर सरकार बनाई। अपना कार्यकाल पूरा किया। 6 महीने बाद बीजेपी को सत्ता हस्तांतरण तो किया लेकिन कुछ दिन बाद ही समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दी। बाद में कल्याण सिंह ने बीएसपी में तोड़फोड़ करके अपनी सरकार बनाई।

साल 2002 में चौथा प्रयोग
मुलायम सिंह यादव से गेस्ट हाउस गेस्ट कांड में और बीजेपी से पार्टी में तोड़फोड़ से चोट खाई मायावती ने 2002 में बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रयोग किया। इसमें उसे ज़बरदस्त कामयाबी मिली। बीएसपी के उत्थान में 2002 के चुनाव भील का पत्थर साबित हुए‌। कल्याण सिंह अपनी सरकार बनाने के लिए बीएसपी को तोड़कर आधा कर दिया था। बाद में बीजेपी ने कल्याण सिंह को बाहर का रास्ता दिखा दिया। प्रदेश की कमान पहले प्रकाश गुप्ता को सौंपी गई और फिर राजनाथ सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया गया। राजनाथ सिंह से नाराज़ ठाकुर तबके को मायावती ने अपने साथ जोड़ा। 2002 तक आते-आते बीएसपी ने कई बाहुबलियों को टिकट दिया। तब मायावती ने नारा दिया था, ‘चढ़ गुंडन की छाती पर, मोहर लगा दो हाथी पर।’ इस चुनाव में बीएसपी सत्ता तो हासिल नहीं कर पाई थी लेकिन उसने 1996 के मुकाबले 32 सीटें ज्यादा जीती थी। लावा उसे वैश्य समाज और ठाकुर समाज का अच्छा खासा समर्थन मिला था।

‘बहुजन’ को ‘सर्वजन’ में बदलना
2002 के राजनीतिक प्रयोग से उत्साहित मायावती ने 2007 में अपनी :बहुजन समाज पार्टी’ को पूरी तरह ‘सर्वजन की पार्टी’ बना दिया। 2007 के चुनाव से पहले पूरे प्रदेश में ‘ब्राह्मण सम्मेलन’ और अन्य जातियों के ‘भाईचारा सम्मेलन’ करके उन्होंने अपनी पार्टी का पूरी तरह कायाकल्प कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि 2007 के चुनाव में बीएसपी पहली बार पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई। सरकार बनने के बाद मायावती ने नारा दिया ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय।’ रोडवेज की बसों से लेकर सरकार की हर योजना की प्रचार सामग्री पर यही नारा लिखा होता था। यह बीएसपी का नीतिगत बदलाव था। लेकिन 2002 के चुनाव के बाद डीएसपी जितनी तेजी से ऊपर उठी थी 2012 में सत्ता से बाहर होने के बाद उससे कहीं ज्यादा तेज़ी से ख़र्च में चली गई। 2012 जहां उसे 80 सीटें मिली थी वहीं 2017 में उसे विधानसभा की सिर्फ़ 19 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा।

अब 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले मायावती एक बार फिर सोशल इंजीनियरिंग के पुराने फार्मूले को नए सिरे से आज़माना चाहती हैं। यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि उनकी पार्टी का बुनियादी दलित वोटर अपनी जातीय पहचान भुलाकर हिंदू पहचान के साथ बीजेपी में चला गया है क्या वो उनके धार्मिक कर्मकांड देखकर घर वापसी करेगा?

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