भाजपा ने जिस ध्रुवीकरण की राजनीति से यूपी में 309 सीटें जीत कर विपक्षी दलों को पस्त कर दिया था, अब स्वयं उसे एक दूसरी तरह के ध्रुवीकरण का सामना करना पड़ सकता है। किसानों के मिशन यूपी की घोषणा के साथ ही बिखरी हुई और कमजोर दिख रही विपक्षी पार्टियों में उम्मीद की किरण जाग उठी है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने अन्य दलों के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू कर दिया है। रालोद और एनसीपी के साथ उनका समझौता तकरीबन हो चुका है, जबकि अन्य छोटे दलों के साथ बातचीत चल रही है।
चर्चा है कि आम आदमी पार्टी भी सपा नीत गठबंधन में शामिल होना चाहती है, हालांकि अभी तक इस पर कोई फैसला नहीं हुआ है। प्रदेश में मुख्य रूप से सत्ताधारी भाजपा, सपा गठबंधन और बसपा के बीच त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति नजर आ रही है। चुनावी अभियान में भाजपा तो काफी पहले से जुटी हई है, जबकि सपा और बसपा जैसी पार्टियां हाल के दिनों में सक्रिय हुई हैं। फिलहाल दोनों जातीय सम्मेलन करने में व्यस्त हैं। जहां तक कांग्रेस की बात है तो प्रदेश में वह पिछले 2 साल से मेहनत कर रही है और उसने अपना सांगठनिक ढांचा भी खड़ा कर लिया है, लेकिन इसके पास अपना कोई ठोस आधार नहीं बचा है। वर्ष 2017 के चुनाव में कांग्रेस ने सपा से गठबंधन किया था, लेकिन भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग और ध्रुवीकरण की राजनीति के सामने उनका “ यूपी को ये साथ पसंद है” का नारा बुरी तरह पिट गया।
फिलहाल कांग्रेस अकेले ही संघर्ष करती नजर आ रही है। उसकी कोशिश यूपी में अपनी खोई हुई ताकत वापस पाने और मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने की है, ताकि वर्ष 2024 के आम चुनावों में वह यहां भाजपा को टक्कर दे सके। इस बार सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के नेता ओम प्रकाश राजभर और ऑल इंडिया मजलिस-ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) भागीदारी संकल्प मोर्चा का गठन कर एक नया प्रयास कर रहे हैं, लेकिन उन्हें कितनी कामयाबी मिलेगी या वे कितना भाजपा विरोधी वोट काटेंगे ? यह बात अभी भविष्य के गर्त में है। वैसे पूर्वांचल के बहराइच,गाजीपुर,बलिया, बनारस, मऊ और आजमगढ़ आदि जिलों की दर्जनभर से अधिक सीटों पर राजभर और मुस्लिम वोटर निर्णायक भूमिका में हैं। पिछली बार राजभर एनडीए गठबंधन में थे तो उन्हें 4 सीटों पर जीत हासिल हुई थी।
यह बात सही है कि यूपी में समूचा विपक्ष बिखरा और कमजोर नजर आ रहा है और सपा और बसपा जैसी बड़ी पार्टियां लंबे अर्से से जनता के बीच से गायब भी रही हैं। वहीं दूसरी तरफ भाजपा के पास अपार संसाधन और ताकत है। साथ ही उसने केंद्रीय मंत्रिमंडल में कुछ कुर्मी व दलित नेताओं को मंत्री बनाने के साथ-साथ अपना दल जैसे पुराने सहयोगियों को खुश कर अपनी पहले वाली सोशल इंजीनियरिंग को मजबूत करने की कोशिश है। इन दिनों मुख्यमंत्री आदित्यनाथ लगातार घोषणाएं और उदघाटन कर रहे हैं। चर्चा तो यह भी है कि जल्द ही विधानसभा का एक छोटा सत्र बुला कर अनुपूरक बजट पेश किया जाएगा, जिसमें काशी, अयोध्या, मथुरा व चित्रकूट आदि के विकास और अन्य योजनाओं के लिए घोषणाएं की जाएंगी।
युवाओं को खुश करने के लिए ढेर सारी नौकरियों के एलान की भी तैयारी है। इसी में जनसंख्या नियंत्रण से संबंधित विधेयक भी पेश हो सकता है। इतना ही नहीं एनआरसी विरोधी आंदोलन से लेकर अब तक राज्य में जो घटनाक्रम हुए हैं, उससे उसकी ध्रुवीकरण की राजनीति को खाद-पानी मिलता रहा है। चाहे वह कोरोना की पहली लहर के दौरान तबलीगी जमात को लेकर हुई बयानबाजी और कुछ टीवी चैनलों पर प्रसारित की गई जहरीली खबरें हों या फिर रामपुर में जौहर विश्वविद्यालय व आजम खां का मामला और या फिर समय-समय पर विभिन्न आरोपों में मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी।
इन सबके के बावजूद वर्तमान में यूपी की फिज़ा कुछ बदली हुई नजर आ रही है, क्योंकि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान प्रदेश में भारी जान-माल का नुकसान हुआ है। बेरोजगारी व महंगाई चरम पर है। खासतौर पर निम्न मध्यम वर्ग बहुत ज्यादा परेशान है। शिक्षा व महिला सुरक्षा समेत अन्य कई गंभीर सवाल भी मौजूद हैं और अब इन सब के बीच किसानों ने मिशन यूपी का ऐलान कर दिया है। वे किसी एक विपक्षी पार्टी के लिए वोट नहीं मांगेंगे बल्कि लोगों से भाजपा को हराने की अपील करेंगे। ध्यान रहे कि किसानों ने प. बंगाल में भी ठीक यही किया था, जिसके चलते ममता बनर्जी को बड़ी जीत हासिल हुई। प. बंगाल में जमीनी स्तर पर किसान आंदोलन नहीं था, इसके बावजूद चुनाव उनके अभियान का गहरा असर पड़ा। यूपी का तो मामला अलग है, क्योंकि यहां किसान संगठनों की जड़े काफी गहरी हैं। खासतौर पर पश्चिमी यूपी दशकों से इसका बड़ा केंद्र रहा है।
मौजूदा समय में भी चल रहे आंदोलन में अन्य संगठनों के साथ भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत अपने सदस्यों व समर्थकों के साथ पूरे दमखम से मैदान में डटे हुए हैं। किसानों के बीच टिकैत के असर का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 26 जनवरी की घटना के बाद जब आंदोलन टूटने लगा और उन पर दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर खाली करने का दबाव पड़ा तो उन्होंने भावुक अपील कर दी, जिसके बाद चंद घंटों के बीच आसपास के जिलों से हजारों किसान धरना स्थल पर पहुंच गए। ध्यान रहे कि 3 कृषि कानूनों को वापसी की मांग से शुरू हुए इस आंदोलन ने लोगों की आजीविका के मसले को देश की राजनीति का अहम एजेंडा बना दिया है।
कहा जा रहा है कि किसान जब किसान यूपी में गांव-गांव अपना अभियान शुरू करेंगे तो सभी किस्मों की चुनावी जातीय गणित व सोशल इंजीनियरिंग के नट-बोल्ट ढीले हो जाएंगे। भाजपा के रणनीतिकार भी इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं। किसानों के इस अभियान का तोड़ निकालने के लिए पार्टी में मंथन शुरू हो गया है। सीएम आदित्यनाथ भी अपने यूपी के सांसदों के साथ बैठकें कर रहे हैं। दूसरी तरफ सपा और बसपा जैसे विपक्षी दल अब भी अब कोरोना कुप्रबंधन, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि संकट जैसे मुद्दों को लेकर मुखर हो रहे हैं। उनकी कोशिश है कि किसानों के जरिए बनने वाले भाजपा विरोधी माहौल का ज्यादा से ज्यादा फाएदा उठाया जा सके।