कोरोना संक्रमण के कारण भारत में अब तक हजारों लोगों की जान गई है, लेकिन उन तमाम लोगों की सुध किसी को नहीं है, जिनके सपनों का गला घोंटकर इस महामारी ने एक चलती-फिरती ज़िन्दा लाश में तब्दील कर दिया है।
ज्योति (बदला हुआ नामद्) ऐसे ही दुर्भाग्यशाली लोगों की सूची में शामिल एक और नाम है। पाश उपनाम से दुनिया भर में प्रसिद्ध कवि अवतार सिंह संधू की कविता की एक पंक्ति है- सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना…. यह पंक्ति पढ़ी तो कई बार थी मगर समझी उस दिन जब पता चला कि ज्योति की शादी हो रही है।
ज्योति पढ़ना चाहती थी। पढ़-लिखकर जीवन में कुछ हासिल करना चाहती थी। कुछ बनना चाहती थी। अपने फ़ैसले ख़ुद लेना चाहती थी। छोटी से छोटी ज़रूरतों के लिए किसी पर निर्भर रहने के बजाय अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी। अपने परिवार को एक बेहतर ज़िन्दगी देना चाहती थी। मगर कोरोना ने ऐसा कहर बरपाया कि मज़दूरी कर के छह लोगों का पेट पालने वाले पिता के लिए परिवार की दो जून की रोटी की व्यवस्था करना मुहाल हो गया। नियति ने आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली ज्योति के हाथ से क़िताबें छीनकर काम पकड़ा दिया।
हाशिए पर रहकर भी अपनी मेहनत और हिम्मत के बलबूते कुछ कर गुज़रने वाले न जाने ऐसे कितने लोगों के हौसलों पर कोरोना कहर बन कर टूटा है जिनकी पढ़ाई छूट गई। पढ़-लिखकर ज़िन्दगी को बेहतर बनाने का गरीबी और भुखमरी से छुटकारा पाने का जो एक आख़िरी रास्ता बड़ी जद्दोजहद के बाद उन्हें मिला था, स्कूल और किताबों के साथ ही वो भी बंद हो गया।
स्कूल क्या बंद हुए, ज्योति के लिए तो मानो किस्मत के दरवाज़े ही बंद हो गए, कुछ दिनों बाद ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हो गई पर उसके पास ना तो स्मार्टफोन था और ना ही उसके पापा के पास इतना पैसा कि वह उसको स्मार्टफोन दिला पाते। फोन लेना तो दूर उसके माँ-बाप जैसे-तैसे करके किसी तरह चारों बच्चों के लिए दो वक्त के खाने का पैसा जुटा पा रहे थे। पहले घर का काम निबटाकर ज्योति की मम्मी भी कुछ छोटे-मोटे काम लेती थी। जैसे- बीड़ी बनाना, रजाई में धागा डालना, ब्लाउज में बटन लगाना आदि कर लिया करती थी जिससे कुछ आमदनी हो जाती थी और बच्चों की कॉपी-क़िताब का खर्च निकल आता था, लेकिन कोरोना वायरस के कहर के चलते यह सब काम भी बंद हो गए। अब उसकी मम्मी के पास भी आमदनी का कोई ज़रिया नहीं बचा है।
उधर मुसीबतों ने तो जैसे ज्योति के घर का ही पता पूछ रखा है। आधे पेट खाकर कमज़ोर हो चले ज्योति के छोटे भाई को टीबी ने आ जकड़ा। परिवार की थोड़ी-बहुत जमा पूँजी घर के इकलौते बेटे के इलाज में स्वाहा हो गई। नाते-रिश्तेदार क़र्ज़ न देते तो सर के ऊपर छत तक न बचती। दस बाई दस के एक छोटे से कमरे में तीन लड़कियां और एक टीबी के मरीज़ के साथ छह लोगों का परिवार कैसे बसर करता होगा, यह सोचकर ही शरीर में सिहरन होने लगती है।
उस दिन जब मम्मी ने फ़ोन पर बताया कि ज्योति की शादी हो रही है तो ये सुनकर मेरे मन के किसी कोने में जैसे कुछ टूट सा गया। क्योंकि मैं जिस ज्योति को जानती हूँ वह सेटल होने से पहले सफल होना चाहती थी। दिल्ली में पढ़ाई और नौकरी के शुरूआती दिनों में मैं जब भी किसी त्यौहार पर घर जाती तो ज्योति मुझसे मिलने ज़रूर आती और ढ़ेरों सवाल पूछती। दीदी आपने दिल्ली में कहाँ से पढ़ाई की है। आपने कौन सा कोर्स किया है। आपको कहाँ नौकरी करती हैं। आप क्या काम करती हैं। आपने मीडिया ही क्यूँ चुना। कुछ और क्यूँ नहीं किया। आपको इसके बारे में किसने बताया आदि- आदि। उसके ढ़ेरों सवालों के जवाब देकर मैं कहती कि तुम वही काम करना जो तुम वाकई करना चाहती हो और जिसे करते वक़्त तुम्हें एहसास ही न हो कि तुम कोई काम भी कर रही हो। यह सुनकर वह आश्वस्त हो जाती और अपने सुनहरे भविष्य के सपने बुनने लगती।
आँखों के सामने ज्योति का वही मासूम सा चेहरा आकर ठहर गया। मम्मी अपनी रौ में बोले जा रहीं थीं। बिटिया अब ज्योति के पापा के काम का कोई ठिकाना तो है नहीं, कभी मज़दूरी मिली, कभी नहीं। जब खाने के लाले पड़े हैं तो बेचारे बच्चों को कैसे पढ़ाएंगे। ज्योति हाथ बंटाने को तैयार है पर मोहल्ले के आवारागर्दों की नज़र भूखे भेड़ियों की तरह इन बच्चियों पर गड़ी रहती है। माँ-बाप समझते तो सब हैं लेकिन किस-किस से लड़ते फिरें। उस दिन ज्योति की मम्मी यही सब बताते-बताते रुआंसी हो गईं। कहने लगीं कि किसी दिन कुछ ऊंच-नीच हो गई तो हम तो कहीं के नहीं रहेंगे।
मुसीबत में चौतरफ़ा घिरे परिवार को ज्योति की शादी ही एकमात्र रास्ता नज़र आया सो उन्होंने बिना देर किए उसपर कदम बढ़ा दिए। ज्योति की माँ ने शादी की बाबत जब रिश्तेदारों और मोहल्ले वालों से बात की तो कई लोग मदद को आगे आ गए और इस तरह शादी के लिए पैसा इकट्ठा हो गया। पढ़ने के लिए तो कौन कितनी मदद करता अलबत्ता शादी के नाम पर तो सब ने कहा कि चलो ठीक है बिटिया अपने घर चली जाएए खुश रहे।
खुश रहे! ये शब्द जैसे मेरे कानों में अटक गए। मैं सोचने लगी कि अपने सपनों की बलि देकर भला कोई कैसे ख़ुश रह सकता है, लेकिन ज्योति के पास नियति के इस फ़ैसले के साथ कदमताल करने के अलावा और चारा भी क्या था।