बिहार में एनडीए की सेहत दिखने में तो ठीक लगती है लेकिन ऐसा है नहीं। जदयू और भाजपा के बीच कई मुद्दों पर टकराव है और यह टकराव हाल के दिनों में सतह पर भी आया। इसका नुकसान एनडीए को बोचहा उपचुनाव में भी हुआ और निकाय कोटे से हुए एमएलसी चुनाव में भी। दरअसल बिहार में भाजपा प्रयोग करने के मूड में दिखाई दे रही थी। इसलिए उसने अपने कुछ नेताओं को छोड़ रखा था कि वह सरकार और खास कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाए। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष संजय जायसवाल की अगुआई में ऐसा किया भी गया। लेकिन भाजपा का प्रयोग असफल हुआ। कई तरह की खबरें भी फैलाई गईं इस बीच। लेकिन भाजपा इसमें मात खा गई। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को यह बात पता चल गई कि बिहार में उसके पास फिलहाल नीतीश कुमार से बड़ा चेहरा नहीं है और अगर इस चेहरे के खिलाफ उसने अभियान चलाया तो हाथ भी उसका जलेगा और घर भी। एमएलसी चुनाव के बाद बोचहा उपचुनाव ने इसे साबित भी किया।
दरअसल भाजपा मुकेश सहनी की वीआईपी के जरिये यह प्रयोग कर रही थी। लेकिन अपने प्रयोग में वह नाकाम रही। भाजपा वीआईपी को तोड़ने के बाद भाजपा यह देखना चाह रही थी कि मुकेश सहनी फैक्टर है भी या नहीं। भाजपा और उसके नेता यह भी मानकर चल रहे थे कि अगर सहनी फैक्टर काम किया तो वे बोचहां में हार सकते हैं। हुआ भी ऐसा ही। लेकिन भाजपा अगर बोचहा में जीत जाती तो बिहार पर अकेले जीत हासिल करने का उनके सपनों को पंख लग जाते और भाजपा इसकी तैयारी में भी जुट जाती। फिर नीतीश कुमार को भाजपा और भी परेशान करती। जाहिर है कि एक अलग तरह की सियासत शुरू हो जाती। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भाजपा बोचहां में औंधे मुंह गिरी। वजहें कई हैं लेकिन उनमें एक बड़ी वजह नीतीश कुमार पर हमलावर होना भी है। बिहार में अतिपिछड़ों और दलितों में जो संदेश गया, उसका नुकसान भाजपा और एनडीए को उठाना पड़ा।
हालांकि बोचहां चुनाव के बाद एक बात शिद्दत से कही जा रही है कि भूमिहारों ने भाजपा की जगह राजद को वोट किया। मीडिया में इसे लेकर बहुत शोर हुआ। लेकिन सच में ऐसा हुआ है क्या क्योंकि जो लोग या पत्रकार इस ढोल को पीट रहे हैं उनमें से अधिकांश का ताल्लुक भुमिहार जाति से है। वैसे सचमुच अगर ऐसा है तो राजद राजद खुश हो सकती है। खुश होना भी चाहिए। लेकिन सच्चाई इससे परे है। जदयू और राजद उम्मीदवारों के बीच मुकाबले में हो सकता है भुमिहार वोट राजद को मिले (एमएलसी चुनाव में ऐसा हुआ भी) लेकिन भाजपा से मुकाबले के वक्त भूमिहार वोट राजद को जाएगा इस पर यकीन करना मुश्किल है। भुमिहार वोट भाजपा को ही जाएगा, भले राजद ए टू जेड पार्टी की बात करे।
एमएलसी चुनाव के नतीजे देखने पर सब कुछ साफ भी हो जाता है। राजद के तीन भूमिहार उम्मीदवार (पटना, मुंगेर और बेतिया) वहीं चुनाव जीते, जहां जदयू उनके सामने थी। इसीलिए अगर बोचहां में राजद की जीत का श्रेय मुकेश सहनी की जगह भूमिहार बिरादरी को दे, तो उनकी शातिर दिमागी को समझने की कोशिश भी करें। दरअसल हाशिये पर खड़े जाति को मुख्यधारा में लाने की नाकाम कोशिश ही है यह चोंचलेबाजी कि भाजपा को भुमिहार ने वोट नहीं दिया। वैसे यह सही है कि भुमिहारों के कुछ वोट जरूर राजद को मिला लेकिन उसे अंगुलियों पर गिना चा सकता है। बोचहां उपचुनाव नतीजों के आंकड़ों को देखने पर बहुत कुछ साफ हो जाता है ओर भुमिहारों का ढोल भी फूट जाता है। साल 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में एनडीए उम्मीदवार मुसाफिर पासवान (वीआइपी) को 77 हजार 837 वोट मिले थे। उपचुनाव में भाजपा की बेबी कुमारी को 45909 और वीआईपी की गीता कुमारी को 29,279 मत मिले हैं। इन दोनों के मतों का योग 75 हजार, 188 होता है। यानी कि 2020 की तरह भाजपा और वीआईपी साथ होते तो तब के मुकाबले मात्र 2.5 हजार के लगभग वोटों का उन्हें नुकसान होता। यानी कि दोनों के अपने वोटर लगभग इनके साथ खड़े रहे। लेकिन राजद यहां फायदे में रही। राजद उम्मीदवार रमई राम को 2020 में 66 हजार 567 वोट मिले थे, जबकि उपचुनाव में 16 हजार वोटों की बढ़त के साथ राजद को तकरीबन 82 हजार 562 वोट मिले हैं। इस बार चिराग पासवान ने बोचहां में अपना उम्मीदवार नहीं दिया था और उन्होंने भाजपा को समर्थन दिया था। फिर भी पासवान समाज ने अमर पासवान को वोट किया। चिराग पासवान के तबके उम्मीदवार अमर आजाद को आठ हजार से ज्यादा मत आये थे, जो इस बार राजद को मिला। वोट फीसद की बात करें तो 2020 में एनडीए को 42.62% फीसद वोट मिले थे। इस बार भाजपा को 26।98 और वीआईपी को 17.21 फीसद वोट मिले हैं। दोनों का योग 44 फीसद से ज्यादा होता है। राजद की बात करें, तो उनका वोट फीसद 2020 में 36.45 था, वह उपचुनाव में बढ़ कर 48.52 फीसद तक पहुंच गया है। 2020 में लोजपा को 4।51 फीसद वोट मिले थे। उस हिसाब से भी राजद के कुल वोट शेयर में कम-से-कम 7 फीसद के करीब वोट शेयर की बढ़ोतरी हुई। जबकि, 2020 के मुकाबले उपचुनाव में मतदान कम ही हुआ था।
इसमें उनलोगों का वोट भी है, जिन्हें पता था कि वीआईपी अकेले तो नहीं जीत पाएगी, लेकिन राजद भाजपा को हरा सकती है। उनका वोट भी राजद को गया।
भाजपा ने बोचहां में दोहरा दांव खेला था। मुकेश सहनी को निपटाने के साथ-साथ उसने जदयू को भी निपटाना चाहा था। अकेले अपने बूते वह चुनाव जीत जाती तो उसका लक्ष्य जदयू होता और वहां भी वह टूट-फूट कर खुद को स्थापित करने में जुट जाती। यूं भी केंद्रीय मंत्री और जदयू नेता आरसीपी सिंह उनके साथ खड़े ही हैं। लेकिन भाजपा जानती है कि आरसीपी सिंह का कद बिहार की राजनीति में कुछ भी नहीं है। वे सियासतदां हो ही नहीं सकते। इसलिए उनके भरोसे वह दूर और देर तक लड़ाई नहीं लड़ सकती। नीतीश कुमार को बिना कमजोर किए वह बिहार में खुद को स्थापित कर ही नहीं सकती। लेकिन बिहार में फिलहाल एनडीए के पास नीतीश से बड़ा चेहरा कोई नहीं है। भाजपा के पास तो नेताओं का टोटा ही है। बयानबहादुरों की कोई कमी नहीं है भाजपा के पास लेकिन जनता के सरोकारों से जुड़े नेता एकभी नहीं है। बिहार को फतह करना है तो उसे नीतीश कुमार के कंधे का सहारा लेना ही होगा। वैसे बोचहां में मुकेश सहनी हारे जरूर लेकिन इस हार के बाद भी वे जश्न मना रहे हैं। मनाना भी चाहिए क्योंकि वे मानते हैं कि हम तो डूबे हैं सनम तुम्हें भी ले डूबेंगे। बोचहां में उन्होंने ऐसा ही किया।