बिहार विधानसभा उपचुनाव के नतीजों ने चिराग पिसवान की सियासत पर सवाल खड़े कर दिए हैं. पार्टी में फूट के बाद अपने सियासी वजूद को बचाने के लिए चिराग पासवान संघर्ष कर रहे थे, उपचुनाव के नतीजों ने यकीनन चिराग की परेशानी बढ़ा दी है. चिराग के हाथ से पार्टी तो निकल ही गई है, रामविलास पासवान ने जो जमीन बनाई थी वह भी खिसक गई सी लगती है. सिर्फ एक साल में चिराग की लोजपा का जनाधार बुरी तरह खिसका है. पिछले साल विधानसभा चुनाव में पार्टी एकजुट थी और जनाधार भी. लेकिन उपचुनाव में चिराग पासवान का भ्रम भी टूटा और वोट भी. लोक जनशक्ति पार्टी पर विरासत की लड़ाई भले चुनाव आयोग में विचाराधीन है लेकिन इस उपचुनाव के नतीजों ने चिराग पासवान की खुशफहमी को काफूर तो कर ही दिया है. आसामन पर उड़ने वाले चिराग को फिलहाल खड़े होने के लिए जमीन भी नहीं मिल रही है.
उनके चाचा और लोजपा के दूसरे गुट के राष्ट्रीय अध्यक्ष व केंद्रीय मंत्री पशुपति कुमार पारस ने उपचुनाव में चिराग की विरासत पर सवाल खड़ा कर डाला है और उन्हें बता दिया है कि पासवान वोटों पर चिराग का अकाधिकार नहीं है. दोनों विधानसभा क्षेत्र में पासवान मतदाता भी चिराग के साथ पूरी तरह खड़ा नहीं रहा और यह चिराग और उनके गुटके लिए चिंता का बड़ा सबब है. पशुपति पारस एनडीए के साथ हैं और इस चुनाव में उन्होंने नीतीश कुमार के उम्मीदवारों का न सिर्फ साथ दिया बल्कि पासवान वोटों में सेंधमारी के लिए बाकायदा टीम गठित की और उन्हें दोनों क्षेत्र में सक्रिय कर पासवान वोटों में सेंधमारी की. कुशेश्वर स्थान तो चिराग के चचेरे भाई प्रिंसराज के संसदीय क्षेत्र में भी आता है इसलिए भी चिराग की चिंता बढ़ी क्योंकि दोनों जगहों पर चिराग का वोट घटा है. सिर्फ एक साल में चिराग पासवान उन वोटों को संभाल नहीं पाए जो रामविलास पासवान ने उन्हें विरासत के तौर पर सौंपा था.
बिहार की सियासत में पशुपति लगातार सक्रिय रहे हैं और अपने अनुभव का फायदा उन्होंने उठाया और भतीजे को सियासत का पाठ पढ़ाया. चिराग ने हालांकि पार्टी में बगावत के बाद बिहार में आशीर्वाद यात्रा भी निकाली थी लेकिन इसका फायदा उन्हें इस उपचुनाव में तो नहीं मिला, पर जमीनी हकीकत जरूर सामने आ गई कि वे पासवानों के इकलौते नेता नहीं हैं. पशुपति पारस ने बेहतर रणनीति के साथ काम किया और चिराग पासवान उनकी रणनीति को भांप नहीं सके. चिराग हवाओं के पंख पर सवार थे और पशुपति जमीन पर काम कर रहे थे. नतीजा सामने है. पहले चिराग को चुनाव आयोग ने गच्चा दिया और अंतरिम फैसले के तहत लोजपा के चुनाव चिन्ह को फ्रीज कर चिराग को हेलिकाप्टर चुनाव चिन्ह अलॉट किया. इससे चिराग गुट का मनोबल टूटा था. रही-सही कसर नतीजों ने पूरी कर दी है. सियासी पंडितों का मानना है कि इस उपचुनाव में चिराग पासवान को अपना उम्मीदवार नहीं उतारना चाहिए था लेकिन नए रंगरूटों से घिरे चिराग बिहार की सियासी बयार को परखने में नाकाम रहे चिराग ने उम्मीदवार देकर अपनी भद्द पिटवा ली.
हालांकि भद्द तो कांग्रेस की भी पिटी. लेकिन कांग्रेस बमबम है. उसे हार में अपनी जीत नजर आ रही है. कांग्रेस का लक्ष्य राजद की तानाशाही को खत्म करना था और उसने ऐसा ही किया, लेकिन चिराग जिस जदयू और नीतीश कुमार को हराने निकले थे, हुआ उलटा. उनकी वजह से जदयू की जीत आसान हो गई. हद तो यह है कि अपने संसदीय क्षेत्र में भी चिराग पासवान अपने उम्मीदवार की जमानत तक नहीं बचवा पाए. इस विधानसभा क्षेत्र के चुनाव परिणाम में लोजपा (रामविलास) की करारी हार हुई. कुशेश्वरस्थान से भी चिराग के उम्मीदवार की दुर्गति हुई और यहां भी उनकी जमानत जब्त हो गई. दिल बहलाने के लिए चिराग कह सकते हैं कि उनके उम्मीदवार तीसरे स्थान पर रहे और कांग्रेस के चौथे. लेकिन लोजपा के परंपरागत वोटों में भारी गिरावट दर्ज की गई. लोजपा (रामविलास) ने तारापुर सीट से कुमार चंदन को उम्मीदवार बनाया था. अपने संसदीय क्षेत्र में अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए कड़ी मेहनत भी चिराग ने की. लेकिन वोटरों ने इतने कम वोट दिए कि चंदन सिंह अपनी जमानत भी गंवा बैठे. चिराग के उम्मीदवार को तारापुर में महज 5350 वोट मिले. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में लोजपा की उम्मीदवार मीना देवी को 11264 मत मिले थे. यानी एक साल में चिराग की लौ फड़फड़ाने लगी है. पिछले साल के मुकाबले इस बार 5914 वोट कम मिले. तारापुर में पासवान वोटरों क तादाद दस हजार से ऊपर है लेकिन पासवानों ने भी चिराग को नकार दिया.
कमोबेश यही कहानी कुशेश्वरस्थान की भी रही. लोजपा (रामविलास) कहीं लड़ाई में ही नहीं रही. लोजपा (रामविलास) की अंजू देवी को 5623 वोट मिले. कुशेश्वरस्थान सीट पर अपने उम्मीदवार के लिए चिराग पासवान ने खूब पसीना बहाया था. लेकिन वोटरों को वे रिझा नहीं पाए. पिछले साल लोजपा को करीब तेरह हजार वोट मिले थे लेकिन इस उपचुनाव में करीब साढ़े पांच हजार वोट यानी पिछली बार की तुलना में साढ़े सात हजार वोट कम मिले.
बिहार विधानसभा की दो सीटों के उपचुनाव के नतीजे से साफ हो गया कि लोजपा (रामविलास) के अध्यक्ष चिराग पासवान का हेलीकाप्टर (चुनाव चिह्न) न जमीन पर उतरा, न ही जनता के बीच उड़ान भर पाया. इसी के साथ चिराग का जदयू के उम्मीदवारों को हराने के दावे भाषणों और बयानों तक ही सिमटा रहा. चाचा-भतीजा की सियासी विरासत की लड़ाई के बीच यह उपचुनाव चिराग के लिए प्रतिष्ठा का सवाल था, लेकिन नतीजों ने साफ कर दिया कि अब चिराग खुद सवाल बन गए हैं और एनडीए के खिलाफ जाना उनकी बड़ी भूल है. उन पर यह मुहावरा फिट बैठता है कि न खुदा ही मिला न विसाले सनम. उपचपुनाव के नतीजों ने चिराग के सियासी भविष्य पर बड़ा सवालिया निशान लगा डाला है. इसका जवाब फिलहाल उनके पास भी नहीं है, लेकिन जो तसवीर दिखाई दे रही उससे तो लगता है कि 2024 के लोकसभा और 2025 के विधानसभा चुनाव में भी राह उनके लिए आसान नहीं होगी. उपचुनाव के नतीजों से चिराग के समर्थकों में बेतरह मायूसी है, लेकिन उनके चाचा और राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष पशुपति कुमार पारस का खेमा बमबम है. पहले संसदीय दल का अध्यक्ष और उपचुनाव में चिराग को हाशिए पर ढकेल कर पशुपति पारस अब पूरी ताकत से लोक जनशक्ति पार्टी और चुनाव चिन्ह बंगला को हासिल करने के लिए चुनाव आयोग में दलीलें देंगे. लोजपा के भविष्य की सियासत की धमक को उपचुनाव के नतीजों के शोर में सुना जा सकता है.
इंडिया न्यूज स्ट्रीम