बिहार में दो सीटों पर उपचुनाव निपट गया। दोनों सीटें सत्ताधारी जदयू की थीं और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की साख दांव पर लगी थी। हालांकि वे जीत को लेकर पुरउम्मीद थे, नतीजों से एक दिन पहले उनके चेहरे पर खेलती मुस्कुराहट और बातचीत में जो ठहराव था, उससे साफ था कि उन्हें किसी तरह की आशंका नहीं थी। ठीक इसके उलट राजद नेता तेजस्वी यादव घबराए हुए थे और बार-बर चुनाव में धांधली की दुहाई देते हुए कभी हेलिकाप्टर तैयार रहने की बात करते तो कभी मतगणना में गड़बड़ी की आशंका जताते। उनकी शारीरिक भाषा कुछ और कह रही थी और वे बातें कुछ और कर रहे थे।
मीडिया के सामने जब भी वे आए उसमें आत्मविश्वास की कमी भी दिखाई दी। यह सही है कि राजद ने चुनाव में सत्ताधारी दल को कड़ी टक्कर दी। तारापुर में तो करीब अठारह दौर की गिनती तक जदयू नेताओं के चेहरे पर मायूसी भी पसर गई थी। लेकिन फिर जदयू उम्मीदवार राजीव सिंह ने बढ़त बनाई तो फिर अंत तक इसे बनाए रखा। जीत का अंतर कम रहा लेकिन जदयू और नीतीश कुमार के लिए जीत खासा महत्त्व रखता है।
उपचुनाव के नतीजों को लेकर उत्साहित थी और पूरे चुनाव में वह प्रचारित करता रहा कि दो सीटें जीतते ही तेजस्वी यादव बिहार के मुख्यमंत्री बन जाएंगे। अब यह किस गणित से मुख्यमंत्री बनते, यह ठीक-ठीक तो लालू यादव बता सकते हैं या तेजस्वी यादव, क्योंकि अगर उन्हें जीत भी मिलती इन दो सीटों पर तो भी नीतीश कुमार की अगुआई वाली एनडीए सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। हां, यह जरूर होता कि इससे नीतीश कुमार थोड़ा दबाव में आते और भाजपा उन्हें सियासी तौर पर ब्लैकमेल करती। भविष्य की सियासी तसवीर भी बदलती, इससे ज्यादा कुछ नहीं होता। लेकिन राजद ने तो पता नहीं किस तरह का सपने पाल रखा था या कहें कि मुगालते में था कि बस सत्ता उसके हाथ में अब आई कि तब आई। राजद नतीजों से पहले तक हवाओं में उड़ रहा था, लेकिन कुशेश्वरस्थान और तारापुर की जनता ने राजद को जमीन पर ला पटका है।
देखा जाए तो उपचुनाव में राजद की हार के लिए कोई जिम्मेदार है तो खुद राजद। तेजस्वी यादव का अहंकार और लालू यादव का दंभ राजद को ले डूबा। लालू यादव ने कांग्रेस की हैसियत बताई थी लेकिन हुआ उलटा, कांग्रेस ने राजद को उसकी हैसियत बता दी। राजद ने कांग्रेस को दरकिनार नहीं किया होता तो शायद कहानी कुछ दूसरी होती। इस उपचुनाव में लालू यादव से लेकर राजद के दूसरे नेताओं ने कांग्रेस को जलील किया। कांग्रेस प्रभारी भक्तचरण दास को लेकर जिस तरह की टिप्पणी लालू यादव ने की उससे दोनों दलों के रिश्तों में तल्खी और बढ़ी। लेकिन अब कांग्रेस बमबम है।
कांग्रेस दोनों सीटों पर राजद की हार का बड़ा कारण बनी। हालांकि यह भी तय था कि कांग्रेस चुनाव जीतने नहीं जारही है। दिलचस्पी इस बात को लेकर थी कि उसे कितना वोट मिलता है। कांग्रेस ने तारापुर में उतना वोट हासिल किया जितने वोटों से राजद हारी है और कुशेश्वरस्थान में भी वह राजद के हार की वजह बनी। कांग्रेस खेमा इसे अपनी जीत की तरह देख रहा है। कांग्रेस इस उपचुनाव में जदयू को नहीं, राजद को हराना चाह रही थी और उसने ऐसा कर दिखाया। भविष्य में कांग्रेस और राजद के रिश्ते कैसे रहते हैं, फिलहाल इस सवाल का जवाब न राजद के पास है और न ही कांग्रेस के पास।
लालू यादव और तेजस्वी भले मुगालता पाल लें और सबसे बड़े दल होने का दावा करें लेकिन इस उपचुनाव ने तय कर दिया है कि बिहार में उन्हें कांग्रेस का साथ चाहिए। वामपंथी दल जरूर राजद के साथ हैं लेकिन भाकपा माले को छोड़ कर दूसरे वामपंथी दलों का बिहार में कोई आधार नहीं बचा है। राजद ने कांग्रेस को दरकिनार नहीं किया होता तो जदयू के लिए सीट निकालना मुश्किल हो सकता था।
हालांकि जीत के लिए तेजस्वी ने हर जतन किया। यहां तक कि बीमार लालू प्रसाद ने भी चुनावी सभा को संबोधित किया। छह साल बाद लालू प्रसाद की सभा में काफी भीड़ भी उमड़ी, लेकिन वाटरों ने राजद को वोट नहीं दिया। लालू प्रसाद के आने के बाद माना जा रहा था कि राजद आसानी से सीट निकाल ले जाएगा लेकिन दोनों जगह की अवाम ने नीतीश कुमार के विकास के एजंडेपर मुहर लगाई। तारापुर में राजद सोलह साल से हार रहा है और इस बार भी वहां जीत नहीं दर्ज कर पाया। राजद ने इस बार वैश्य को मैदान में उतारकर जातीय समीकरण साधने की कोशिश की थी। 43 पंचायतों में विधायक, पूर्व विधायक और एमएलसी को नियुक्त किया, लेकिन वे वोटरों को रिझाने में सफल नहीं हो सके।
तारापुर सीट पर टक्कर कांटे की हुई। इसका अंदाज भी था। जदयू ने यहां 2005 के उम्मीदवार राजीव कुमार सिंह को उतारा। राजीव सिंह को तब राजद के शकुनी चौधरी से महज छह सौ वोटों से हार का सामना करना पड़ा था। इस बार 3819 वोट से राजीव सिंह ने राजद को हराया। 2020 में दिवंगत विधायक डा मेवालाल चौधरी ने राजद प्रत्याशी दिव्या प्रकाश को लगभग 7200 वोटों से शिकस्त दी थी। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह और संसदीय बोर्ड के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा के लिए भी यह जीत बड़ी कही जा सकती है। ललन सिंह और उपेंद्र कुशवाहा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और संसदीय बोर्ड का कमान संभालने के बाद यह पहला चुनाव था। इस चुनाव ने लोजपा (रामविलास) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान के सियासी भविष्य पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं।
इंडिया न्यूज स्ट्रीम