क्या अखिलेश की राह में फिर रोड़ा अटकाएंगे चाचा शिवपाल?

उत्तर प्रदेश में योगी 2.0 सरकार ने ताबड़तोड़ जनहित के फैसलों से जनता
का दिल जीतने की क़वायद शुरू कर दी है. माना जा रहा है कि इस सरकार के
गठन के साथ ही बीजेपी ने 2024 के लोकसभा चुनाव के साथ ही 2027 के
विधानसभा चुनाव में भी जीत की तैयारियां शुरू कर दी है. इसी के साथ
समाजवादी पार्टी ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को विधायक दल का
नेता चुन लिया गया है. लेकिन इस बैठक में शिवपाल यादव को नहीं बुलाया
गया. इससे शिवपाल नाराज़ बताए जाते हैं. शिवपाल ने कहा है कि उन्हें इस
बैठक की कोई सूचना नहीं दी गई. इसके जवाब में अखिलेश ने सफाई दी है कि
सहयोगी दलों के विधायक दल की बैठक में में शिवपाल यादव को भी बुलाया
जाएगा.

सपा के विधायक हैं शिवपाल

समाजवादी पार्टी के विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद अब अखिलेश यादव
का उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्ष का नेता बनना तय है. विधायक दल के
नेता चुने जाने जैसे शुभ अवसर पर चाचा शिवपाल ने नाराज़गी जताकर अपशकुन
कर दिया है. इससे यह आशंका पैदा हो गई है कि शायद अखिलेश की राह में चाचा
शिवपाल एक बार फिर रोड़ा अटका सकते हैं. लखनऊ के राजनीतिक गलियारों में
यह मुद्दा जोर पकड़ता जा रहा है कि आख़िर समाजवादी पार्टी के विधायक दल
की बैठक में शिवपाल यादव को क्यों नहीं बुलाया गया. ग़ौरतलब है कि
विधानसभा चुनाव से पहले शिवपाल यादव ने अखिलेश यादव से समझौता किया था.
इसी समझौते के तहत शिवपाल यादव ने समाजवादी पार्टी के टिकट पर जसवंतनगर
सीट से चुनाव लड़ा था और जीतकर विधायक बने हैं. इस हिसाब से वो समाजवादी
पार्टी के विधायक हैं. लिहाजा उन्हें विधायक दल की बैठक में बुलाया जाना
चाहिए था.

पल्लवी पटेल भी सपा की विधायक

वहीं समाजवादी पार्टी के सूत्रों का कहना है कि शिवपाल समाजवादी पार्टी
के टिकट पर चुनाव ज़रूर लड़े हैं लेकिन वो नेता प्रजातांत्रिक समाजवादी
पार्टी के हैं. सपा के टिकट पर चुनाव लड़ना उनकी मजबूरी थी. सपा से
गठबंधन से पहले शिवपाल यादव अपनी पार्टी को 100 सीटों पर चुनाव लड़ने की
तैयारी कर रहे थे. उनकी प्रजातांत्रिक समाजवादी पार्टी को चाबी चुनाव
निशान मिला हुआ है. लेकिन जनता में इसका प्रचार ज्यादा नहीं है. इसलिए
उन्होंने समाजवादी पार्टी के टिकट पर ही चुनाव लड़ना मुनासिब समझा. ठीक
उसी तरह जैसे अपना दल (कमेरावादी) की पल्लवी पटेल और महान दल के केडी
मौर्य अभी समाजवादी पार्टी के टिकट पर ही चुनाव लड़े हैं. सपा के सूत्रों
के मुताबिक इन्हें भी सपा विधायक दल की बैठक में नहीं बुलाया गया है. सपा
के सहयोगियों में सिर्फ आरएलडी और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी यानी
(एसबीएसपी) नहीं अपने चुनाव चिन्ह पर विधानसभा का चुनाव लड़ा है. सभी
सहयोगी दलों के विधायक दल की बैठक रविवार को होगी इस बैठक में भी अखिलेश
यादव को गठबंधन का नेता चुना जाएगा.

लोकसभा से इस्तीफा अखिलेश की रणनीति या मजबूरी?

बीते मंगलवार को अखिलेश यादव ने आज़मगढ़ की लोकसभा सीट से इस्तीफा देकर
करहल से विधायक बने रहने का फैसला किया था. लोकसभा से इस्तीफे के बाद
अखिलेश यादव ने ऐलान किया था कि वो पूरे 5 साल जनता के मुद्दों को उठाकर
बीजेपी की सरकार के खिलाफ संघर्ष करेंगे. अखिलेश यादव के इस कदम को उत्तर
प्रदेश की राजनीति में मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है. उनके इस क़दम को
अगले विधानसभा चुनाव की तैयारियों का रणनीति माना जा रहा है. लेकिन कहीं
ना कहीं यह अखिलेश यादव की मजबूरी भी थी. अखिलेश यादव ने पल दो पल में
सांसदी छोड़कर विधायक बने रहने का फैसला नहीं किया. उन्होंने बहुत सोच
समझकर यह फैसला किया है. कई दिनों के विचार मंथन के बाद अखिलेश इस नतीजे
पर पहुंचे कि अगर वह प्रदेश की राजनीति में लगातार काम करेंगे तो तभी
2027 के विधानसभा चुनाव में उनके जीत की संभावना बन सकती है. वैसे भी
2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी का कोई बहुत बड़ी
भूमिका नहीं है. अखिलेश यादव के इस क़दम से उनके चाचा शिवपाल यादव की
उम्मीदों पर पानी फिर गया है.

क्या थी शिवपाल की मंशा

समाजवादी पार्टी के सूत्रों का कहना यह है कि शिवपाल यादव अखिलेश की
गैरमौजूदगी में खुद नेता प्रतिपक्ष बनने का सपना संजोए हुए थे. जैसे 2007
में विधानसभा का चुनाव हारने के बाद मुलायम सिंह यादव ने दिल्ली का रुख
किया था और शिवपाल यादव को नेता प्रतिपक्ष बना दिया था. 2007 से लेकर
2012 तक शिवपाल यादव ने बतौर नेता प्रतिपक्ष राजनीति की. इसीलिए 2012 में
जब अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया गया तो उन्होंने मुख्यमंत्री की
कुर्सी पर अपना हक़ जताते हुए नाराज़गी जताई थी. शिवपाल के क़रीबी नेताओं
का कहना है कि शिवपाल यादव ने अपनी पार्टी का विलय समाजवादी पार्टी में
कर दिया था. उन्हें उम्मीद थी कि सपा की सरकार बनने पर उसमें उनकी बड़ी
और महत्वपूर्ण भूमिका होगी. अगर सरकार नहीं बनी तो अखिलेश यादव आज़मगढ़
से लोकसभा सदस्य बने रहना पसंद करेंगे इस स्थिति में समाजवादी पार्टी में
मुलायम सिंह परिवार के सबसे वरिष्ठ सदस्य होने के नाते उन्हें एक बार फिर
नेता प्रतिपक्ष बनने का मौक़ा मिल जाएगा. परिवार का सबसे वरिष्ठ सदस्य
होने के नाते उनका दावा सबसे मजबूत हो सकता था. लेकिन अखिलेश यादव ने
सांसदी छोड़कर विधायक बने रहने का फैसला करके उनके अरमानों पर पानी फेर
दिया.

प्रसपा का सपा में विलय या गठबंधन?

विधायक समाजवादी पार्टी के विधायक दल की बैठक में शिवपाल यादव को नहीं
बुलाई जाने के बाद जिस तरह शिवपाल यादव ने तेवर दिखाए हैं उससे यही लगता
है कि शिवपाल यादव यह मानकर चल रहे थे कि वह समाजवादी पार्टी का हिस्सा
हैं और उनकी पार्टी प्रजातांत्रिक समाजवादी पार्टी का समाजवादी पार्टी
में विलय हो चुका है. लेकिन विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद अखिलेश
यादव ने यह कहकर उनकी औक़ात बता दी कि वो समाजवादी पार्टी का हिस्सा नहीं
बल्कि उसमें मेहमान हैं. इससे यह सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या चुनाव से
पहले शिवपाल यादव ने अपनी प्रजातांत्रिक समाजवादी पार्टी का अखिलेश यादव
की समाजवादी पार्टी में पूरी तरह विलय कर दिया था या सिर्फ उन से गठबंधन
किया था? प्रसपा का सपा में विलय हुआ हो या ना हुआ हो, सच्चाई यह है कि
शिवपाल यादव पूरी तरह समाजवादी पार्टी के विधायक हैं. मौजूदा विधानसभा के
पूरे कार्यकाल में वो समाजवादी पार्टी के ही विधायक माने जाएंगे. उन पर
समाजवादी पार्टी का व्हिप भी भी लागू होगा. यानि प्रसपा के नेता होते हुए
भी वो सपा के विधायक होने के नाते सपा के ही अनुशासन से बंधे हुए हैं.
पार्टी के ख़िलाफ़ की गई कोई भी गतिविधि उनकी सदस्यता के लिए ख़तरा बन
सकती है.

चाचा पर फिर भारी पड़ा भतीजा

चाचा भतीजे के बीच हुए समझौते के दौरान की ख़बरों को खंगालने के बाद पता
चलता है राजनीति के खेल मे भतीजा एक बार फिर चाचा पर भारी पड़ा. दरअसल
शिवपाल यादव तो अपनी पार्टी का सपा में पूरी तरह विलय करना चाहते थे.
लेकिन अखिलेश यादव विलय के लिए तैयार नहीं हुए. अखिलेश यादव ने उनसे
सिर्फ गठबंधन किया था. वह भी इसी शर्त पर कि शिवपाल यादव समाजवादी पार्टी
के टिकट पर ही चुनाव लड़ेंगे. शिवपाल ने भी इस लिए हामी भर दी थी कि उनकी
पार्टी का चुनाव निशान की जनता में अभी पहचान नहीं बन पाई है इसलिए
उन्हें भी विधायक बनने के लिए यही रास्ता आसान दिखा कि समाजवादी पार्टी
के टिकट पर ही चुनाव लड़ा जाए. पहले विधायक बना जाए उसके बाद अपनी
राजनीति की दिशा और दशा तय की जाएगी. राजनीतिक गलियारों में माना जा रहा
था कि शिवपाल यादव ने बहुत झुककर अखिलेश यादव के साथ समझौता किया था. वो
अखिलेश यादव से अपने एक भी समर्थक को टिकट नहीं दिला पाए. शिवपाल के
क़रीबी नेताओं का मानना यह था कि अगर समाजवादी पार्टी में सरकार बनेगी तो
शिवपाल उन्हें सरकार में सम्मान ज़रूर दिला पाएंगे और सरकार में उनकी
बड़ी और महत्व भूमिका रहेगी.

अखिलेश यादव के अपनी पार्टी के विधायक दल का नेता बनते ही जिस तरह चाचा
शिवपाल ने नाराज़गी जताई है उससे सिर मुंडाते ही ओले पड़ने वाली कहावत
चरितार्थ हो रही है. दरअसल अखिलेश यादव के सामने बीजेपी से टक्कर लेना
बहुत बड़ी चुनौती है. बीजेपी ने सपा, बसपा के आधार और सपोर्ट वोट दोनों
में ज़बरदस्त तरीक़े से सेंधमारी करके इन खुद को बहुत मज़बूत कर लिया है.
अखिलेश पर पिछले पांच साल में ड्राइंग रूम में बैठकर राजनीति करने का
आरोप लगता रहा है. चुनाव से कुछ महीने पहले ही वह सड़कों पर दिखाई दिए.
गठबंधन किया और आधी अधूरी तैयारियों से चुनाव मैदान में उतरे. उनके सामने
अपने आने वाले पांच साल तक सहयोगी दलों को समेट कर रखना बड़ी चुनौती है.
बीजेपी लगातार आरएलडी और एसबीएसपी पर डोरे डाल रही है. ऐसे में चाचा
शिवपाल ने शुरुआत में ही बागी तेवर दिखाकर इस चुनौती को और बढ़ा दिया है.
इसका असर बाकी सहयोगी दलों पर भी पड़ सकता है. ऐसे में अखिलेश के सामने
इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती परिवार से एक बार फिर उठने वाली बग़ावत को
रोकने की है.

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