बिहार में सियासत लगता है कि बदल रही है. जातीय समीकरण बदल रहे हैं. वोटों का गुणा-भाग भी बदल रहा है. बिहार में हुए उपचुनाव के नतीजों ने तो कुछ ऐसे ही संकेत दिए हैं. बड़ी बात यह है कि उपचुनाव में मुसलमानों का वोट जदयू को भी मिला है. पिछले विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने जदयू को नकार दिया था और महागठबंधन के पक्ष में एकमुश्त वोट दिया था. लेकिन उपचुनाव में मुसलमानों ने जदयू को अछूत नहीं समझा और वोट किया.
मुसलमान वोटों में हुई सेंधमारी को बिहार में नए राजनीतिक समीकरण से जोड़ कर देखा जा रहा है. यह बदलाव महत्त्वपूर्ण है. सिर्फ इसलिए नहीं कि जदयू ने राजद के मुसलिम वोटों में सेंधमारी की बल्कि इसलिए भी कि यह हिस्सेदारी सौ-पचास वोटों की नहीं रही. बल्कि मुसलमानों ने राजद से थोड़ा कम वोट ही जदयू को दिया. इसे संकेत माना जाए तो राजद के लिए यह संकेत ठीक नहीं है. यूं दिल बहलाने को कहा जा सकता है कि उपचुनाव को संकेत मानना सही नहीं है.
लेकिन यह भी सही है कि मुसलमानों का राजद से मोह भंग हो रहा है. पिछले विधानसभा चुनाव में एआईएमएम को मिली सफलता ने भी राजद की परेशानी बढ़ाई है. सीएए और एनआरसी जैसे संवेदनशील मुद्दे पर जदयू ने जिस तरह का रवैया अपनाया था उससे बिहार में मुसलमानों में गुस्सा था. खास कर राज्यसभा में केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह ने बिल के समर्थन में जिस तरह की बातें कीं थीं उससे मुसलमानों में संदेश ठीक नहीं गया और विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने हिसाब भी चुकता कर लिया. जदयू के मुसलमान नेताओं में इस बात का मलाल है कि आरसीपी सिंह के रुख की वजह से विधानसभा चुनाव में जदयू 43 सीटों पर सिमट गई. हालांकि यह भी सही है कि सीएए और एनआरसी के मुद्दे पर बिहार में राजद और उसके युवा नेता तेजस्वी यादव ने भी खल कर समर्थन नहीं किया. राजद नेताओं की मानें तो जिला इकाइयों को इस आंदोलन से दूर रहने की ही सलाह दी गई थी. इमारत-ए-शरीया ने इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाई थी तो न तेजस्वी आए और न ही राजद का कोई प्रतिनिधि. गुस्सा तो राजद से भी मुसलमान थे लेकिन निकाला सिर्फ जदयू पर. उपचुनाव के नतीजों के बाद जदयू ने राहत की सांस ली है. उपचुनाव में राजद को मुसलमानों के करीब 50 फीसद वोट मिले तो जदयू को करीब 47 फीसद. जाहिर है कि एक साल में ही मुसलिम वोटों का जदयू की तरफ लौटने को पार्टी बड़ा बदलाव मान रही है.
लेकिन सिर्फ मुसलिम वोटों का ही समीकरण नहीं बदला है, दूसरे जातीय समीकरणों में भी बदलाव हुआ है. राजद के पारंपरिक यादव वोटों में भी जदयू ने सेंधमारी की है. राजद भले दावे करे लेकिन जो आंकड़े सामने आए हैं उसे देख कर तो लगता है कि यादवों का भरोसा भी राजद से डगमगाया है. इसकी वजह तेजस्वी यादव को ज्यादा माना जा रहा है. दिलचस्प यह है कि यादवों ने लालू यादव को संदेश दिया कि अब वे उनके बंधुआ मजदूर नहीं हैं तो पिछड़े-अतिपिछड़ों ने नीतीश कुमार को भी संदेश दिया कि वे जातीय गोलबंदी को तोड़ कर दूसरी तरफ भी जा सकते हैं. वैसे कह सकते हैं कि दोनों सीटों पर जीत दर्ज कर नीतीश कुमार ने अपनी साख बचा ली, लेकिन आने वाले दिनों में संकेत उनके लिए भी ठीक नहीं है. तारापुर में तो वोटरों ने सियासी पंडितों को भी अचंभित कर डाला. इसको कुछ इस तरह से समझा जा सकता है.
तारापुर से राजद ने अरुण कुमार को उम्मीदवार बनाया था. वे वैश्य समाज से हैं. अमूमन वैश्य समाज को भाजपा का कोर वोटर माना जाता है. भाजपा को ब्राह्मण और बनिया की ही पार्टी कहा जाता रहा है. बिहार में भाजपा और जदयू गठबंधन में हैं, लेकिन तारापुर में वैश्य वोटरों ने जदयू उम्मीदवार को वोट नहीं दिया. जाहिर है कि वैश्य समाज ने अपने समाज के उम्मीदवार का वजह से राजग उम्मीदवार को वोट नहीं किया. इसी तरह यादव बहुल इलाके में भी यादवों का एकमुश्त वोट राजद को इस बार नहीं मिला. हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि यादव जिस आक्रामक अंदाज में वोट डाले जाने के लिए जाने जाते थे इस बार उस तरह से वोटिंग उन्होंने नहीं की.
तारापुर विधानसभा सीट पर जदयू के तीन बार विधायक रहे पूर्व मंत्री मेवालाल चौधरी और उनकी पत्नी नीता चौधरी का लखनपुर, माणिकपुर और कमरगांवा में अच्छा खास प्रभाव माना जाता रहा है. इन गांवों में कुल ग्यारह बूथ हैं. इनमें से छह पर जदयू और पांच पर राजद के उम्मीदवार को ज्यादा वोट मिले. यानी जदयू के पूर्व विधायक के दबदबे वाले क्षेत्र में भी राजद ने बराबरी की टक्कर दी.
लेकिन मुसलमानों ने राजद को मायूस किया. राजद को तारापुर में मुसलमानों के आठ हजार (8153) से ज्यादा वोट मिले तो जदयू को करीब पौने सात हजार (6793) वोट मिले. राजद के लिए परेशानी का यह बड़ा सबब है. सियासी पंडितों का मानना है कि बिहार के मुसलमानों में नीतीश कुमार को लेकर गुस्सा नहीं है लेकिन भाजपा गठबंधन की वजह से वोट करते वक्त जदयू के खिलाफ हो जाते हैं. इस उपचुनाव में अगर राजद का तिलिस्म टूटा है और मुसलिम वोट जदयू की तरफ शिफ्ट किया है तो इसे महत्त्वपूर्ण सियासी उलटफेर के तौर पर देखा जा रहा है. वैसे आम मुसलमानों को इस बात का मलाल तो है कि पिछले चुनाव में भाजपा की सीटें जदयू से ज्यादा आ गईं. इसकी वजह मुसलमान खुद को मान रहा है. भाजपा के साथ गठबंधन की वजह से ही मुसलमानों ने नीतीश कुमार को वोट नहीं किया, नतीजा यह निकला कि भाजपा के सीटों की तादाद बढ़ी और जदयू की तादाद कम हो गई.