नई दिल्ली।राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का राजस्थान से गहरा रिश्ता और लगाव रहा। गांधीजी अपने पूरे जीवनकाल में तीन बार राजस्थान आए। ख़ास कर उन्होंने अजमेर की यात्राएँ की।इन यात्राओं में महात्मा गांधी ने राजस्थान में सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन का सूत्रपात किया था।
गांधीजी ने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान पूरे भारत का भ्रमण किया था । आंदोलन के दौरान वे केवल तीन बार 1921, 1922 और 1934 में राजस्थान आए। तीनों ही बार वे अजमेर ही आए। अपनी नौ महीने की हरिजन यात्रा के सिलसिले में गांधीजी 4 जुलाई की रात को अजमेर शहर आए और यहां की दो दिन की यात्रा के बाद 6 जुलाई को ब्यावर पहुंचे
गांधीजी 1934 में राजपूताना के अजमेर में आए थे । तब अजमेर-मेरवाड़ा में सीधे ब्रिटिश हुकुमत थी। बाकी राजस्थान छोटी-छोटी रियासतों में बंटा था । वहाँ के राजा महाराजा अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत हुक्म चला रहे थे।
राजपूताना हरिजन सेवक संघ के निमंत्रण पर 4 जुलाई 1934 की रात गांधीजी अजमेर पहुंचे थे । स्तब बनी वागत समिति के अध्यक्ष हरविलास शारदा और मंत्री रामनारायण चौधरी और कृष्णगोपाल गर्ग मंत्री थे।
5 जुलाई 1934 को गांधीजी अजमेर में महिलाओं की एक सभा में गए और कहा अस्पृश्यता प्रेम और दया की भावना के विपरीत है। इसलिए इस पाप का अंत होना चाहिए। ख़ास बात यह थी कि इस सभा में सभी जातियों का प्रतिनिधित्व रहा था ।
दो दिनों की अजमेर यात्रा में गांधीजी का प्रभाव ऐसा रहा कि सूबे में आगे जाकर जातियों का भेद मिटता चला गया। राजपूताना में तब कुएं-बावड़ी तक जातियों में बंटे थे। मंदिर-स्कूलों में प्रवेश भी जाति के आधार पर ही होता था लेकिन गांधीजी की इस यात्रा ने समाज की सोच को झकझोर दिया।
राजपूताना के हरिजन नेताओं ने बेगार प्रथा के बारे में बापू को बताया। गांधीजी अजमेर में राजस्थान चरखा संघ के कार्यकर्ताओं से भी मिले। इन कार्यकर्ताओं ने गांधीजी को बताया कि 1926 में अमरसर जयपुर में स्थापित की गई हरिजन पाठशाला इतने अच्छे ढंग से चल रही है कि अब सवर्णों के बच्चे भी इसमें पढ़ रहे हैं। इसी दिन गांधीजी ने हरिजन सेवकों को भी संबोधित किया।
गांधीजी की सोच थी- आजादी की लड़ाई जीतने के लिए भारतीयों का एकजुट होना जरूरी हैं। हरिजनों और अन्य कई जातियों को छोटा मानकर भेदभाव-छुआछूत की स्थिति को दूर करना जरुरी है। गांधीजी अजमेर की हरिजन बस्तियों में गए और अजमेर के दिल्ली दरवाजा की बस्ती, तारागढ की ढाल की मलूसर बस्ती आदि को देखा- वहाँ मेहतरों की सड़ी गली झोंपडियां थीं। पानी के नाम पर 400 परिवारों के मध्य मात्र एक नल। रैगरों के मौहल्ले की भी यही दुर्दशा थी ।
गांधीजी की इस यात्रा का पहला असर यह दिखा कि अजमेर की तत्काललीन म्युनिसिपल कमेटी ने हरिजनों और छोटी कही जाने वाली जातियों के लिए बड़ा तालाब खोल दिया।
गांधीजी ने समाज को सामाजिक भेदभाव और छुआछूत की बुराई दिखाई।हरिजनों के मंदिरों-स्कूलों में प्रवेश पर रोक, बेगार, पानी और अन्य सुविधाओं से वंचित रखना, कर्ज का बोझ जैसी लाचारी आदि के बारे में बताया।साथ ही शराब-मांस जैसी बुराईयों के बारे में भी जानकारी दी। गांधीजी ने सबको सावचेत किया कि वे इन बुराइयों को छोड़े। इससे प्रेरित होकर स्वतंत्रता आंदोलन के नेता अर्जुनलाल सेठी सहित अन्य कई लोगों ने छोटी जातियों के उत्थान के लिए धन दिया।
गांधीजी की इस यात्रा की खूबी यह रही कि उनकी राजस्थान हरियन यात्रा की व्यवस्थाएं स्वर्ण जातियों के लोगों ने कीं। उनकी सभाओं में सभी जातियां, एवं सभी कौम के लोग शामिल हुए । सामाजिक बुराइयों को पहचान कर सुधार की शुरुआत हुई। हरिजन स्कूल खुले, जिनमें अगड़ी जाति के बच्चे भी पढ़ने लगे।
इस अवसर पर राजपूताना हरिजन सेवक संघ ने गांधीजी को सम्मान पत्र भेंट किया। तब राजपूताना की आबादी 1 करोड़ 12 लाख 25 हजार 712 थी जिनमें 15,65,407 हरिजन आबादी थी जोकि कुल आबादी का 14 प्रतिशत और हिन्दू आबादी का 15.5 प्रतिशत थे।
गाँधी जी की राजस्थान यात्राओं के किस्से
अजमेर की दो दिन की यात्रा के बाद गांधी जी 6 जुलाई को ब्यावर पहुंचे थे । यहां उन्हें चम्पालाल रामेश्वर क्लब की इमारत में ठहराया गया। जहां बाद में चम्पानगर बस गया। गांधीजी के ब्यावर पहुंचने के साथ ही एक घटना घटी जो कि ऐतिहासिक बन गई। जब गांधीजी ब्यावर पहुंचे तो वहां एक 24 साल के युवा पं चंद्रशेखर ने अपने साथियों के साथ गांधीजी को काले झंडे दिखाए। यह नौजवान काशी से शिक्षा प्राप्त संस्कृत का मूर्धन्य विद्वान था।
इसके उपरांत पं.चंद्रशेखर गांधीजी से मिले और उनको शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी। इसके जवाब में गांधीजी ने हंसते हुए कहा कि तुम घोषणा कर दो कि गांधी बिना शास्त्रार्थ के ही हार गया।
यह घटना साधारण-सी लगती है, लेकिन ब्यावर की जमीन पर इतिहास रच गई। पं.चंद्रशेखर आगे चलकर पुरी के शंकराचार्य बने और स्वामी निरंजनदेव तीर्थ कहलाए। वे 1964 से 1992 तक शंकराचार्य रहे। इससे पूर्व वे अखिल भारतीय रामराज्य परिषद के मंत्री के अलावा 1955 से 1964 तक महाराजा संस्कृत कालेज जयपुर के प्राचार्य रहे। बहरहाल, स्वामी और महात्मा की यह मुलाकात उक्त घटना तक ही सीमित रही।
विधवा विवाह की प्रशंसा
उस जमाने में विधवा विवाह किसी क्रांति से कम नहीं था। ब्यावर के गोविन्द प्रसाद कौशिक ने पहला विधवा विवाह कराया था। वे यह साहसिक कदम उठाने वाले ब्यावर के पहले व्यक्ति थे। कौशिक की विधवा पुत्री शारदा का विवाह दिल्ली के गोपालचंद्र शर्मा के साथ हुआ। इसमें भिवानी (हरियाणा ) के बड़े कांग्रेसी नेता नेकीराम शर्मा भी शामिल हुए। गांधीजी विवाह में तो शामिल नहीं हुए थे, लेकिन नेकीराम शर्मा जब नव दम्पति को गांधीजी के पास आशीर्वाद दिलाने लेकर गए तो गांधीजी अत्यंत प्रसन्न हुए और नवविवाहित जोड़े को अपना आशीर्वाद दिया, किन्तू वधु को जेवर पहने देख कर बोले- यह बोझ क्यों लादे हो?
गांधीजी से जैन साधु भी जुड़े
ब्यावर प्रवास के दौरान मिशन ग्राउंड पर गांधीजी की सभा हुई। इस सभा में स्थानकवासी जैन साधुओं ने गांधीजी को मानपत्र दिया और हरिजन कल्याण कोष के लिए धन संग्रह किया। दस्तावेज बताते हैं कि साधु चुन्नीलाल और लक्ष्मी ऋषि गांधीजी के मार्ग पर रचनात्मक कार्यों में लग गए। सभा में गांधीजी को जनता और हरिजनों ने मानपत्र भेंट किया और हरिजन कोष के लिए 1172 रुपए और कुछ आने दिए। गांधीजी हरिजन बस्तियों में गए। ब्यावर से गांधीजी मारवाड़ जंक्शन होते हुए रेल से लूणी गडरा रोड होते हुए कराची गए।
अजमेर की गुप्त यात्रा भी की
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एक बार गुप्त यात्रा पर अजमेर आए थे। इस यात्रा की जानकारी उनके करीबियों को ही थी। रात में बापू शहर की तंग गलियों से गुजरते हुए रास्ता भटक गए और एक नोहरे में जा पहुंचे। वहां उनके प्रशंसक माणकचंद सोगानी ने उन्हें पहचान लिया और बापू ने रात उन्हीं के घर गुजारी। सोगानी वर्ष 1972 में अजमेर पूर्व से विधायक रह चुके हैं। दिवंगत सोगानी के पुत्र सुधीर सोगानी को आज भी उनके पिता की ओर से सुनाया गया वह किस्सा याद है। बात वर्ष 1930 की है। खजाने के नोहरे में स्थित उनके पुराने घर में रात करीब 11 बजे उनके पिता माणकचंद सोगानी झरोखे में बैठे थे। तभी अचानक उनकी नजर गांधीजी पर पड़ी। उन्होंने झरोखे से ही आवाज दी बापू आप यहां कैसे? वे नीचे उतरे और गांधीजी से बात की। तब पता चला कि गांधीजी खजाना गली से कहीं जा रहे थे, तो रास्ता भटककर नोहरे में आ गए।
उन्होंने गांधीजी को घर पर बुलाया और गांधीजी से आग्रह किया कि आज रात आप यहीं विश्राम करें और वे मान गए। गांधीजी को घर में देखकर उनके दादा दिवंगत नेमीचंद सोगानी, चाचा निहालचंद और चाची अनूप कंवर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। घर में घुसते ही गांधीजी ने कुछ भी विशेष इंतजाम करने से मना कर दिया। गांधीजी ने दूध पिया और सो गए। तडक़े ही घर से चले गए। जाते-जाते उन्होंने माणकचंद सोगानी को उनकी यात्रा का किसी से भी जिक्र नहीं करने की हिदायत दी, क्योंकि उस जमाने की अंग्रेज राज की पुलिस उनके परिवार को परेशान करती। इस घटना के कई दिनों बाद स्वतंत्रता सेनानी दिवंगत ज्वालाप्रसाद शर्मा ने माणकचंद सोगानी की प्रशंसा भी की। सोगानी ने अपने परिवार से भी आजादी के बाद यह किस्सा साझा किया। विधायक माणकचंद सोगानी नगर परिषद सभापति, नगर विकास न्यास अध्यक्ष रह चुके हैं।
इंडिया न्यूज स्ट्रीम