केरल विधानसभा में 2015 में वाम मोर्चे के सदस्यों द्वारा की गयी तोड़फोड़ से संबंधित मामले में उच्चतम न्यायालय के हालिया फैसले के आलोक में संसद और विधानमंडलों में सरकार की नीतियों का विरोध करने के दौरान सदस्यों को तोड़फोड़ जैसी गतिविधियों से बचना होगा क्योंकि इस व्यवस्था में शीर्ष अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि सदन में सदस्यों को प्राप्त विशेषाधिकार देश के नागरिकों पर लागू होने वाले आपराधिक कानून से ऊपर नहीं है। मतलब सदन में तोड़फोड़ जैसी गतिविधियां करने वाले सदस्यों के लिए आपराधिक कार्रवाई से बचना संभव नहीं होगा।
शीर्ष अदालत की इस व्यवस्था के बाद सदस्यों को सदन की मर्यादा का ध्यान रखने के साथ ही सरकार की नीतियों पर विरोध प्रकट करते समय किसी भी प्रकार की तोड़फोड़ करने से बचना होगा।
यह सही है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को बगैर किसी भय, दबाव और पक्षपात के सदन में अपनी बात रखने का विशेषाधिकार प्राप्त है लेकिन इसका इस्तेमाल करने के दौरान सरकारी संपत्ति का नुकसान पहुंचाना किसी भी तरह से विधायी ड्यूटी नहीं है।
जहां तक सवाल सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का है तो ऐसे मामलों के लिये उच्चतम न्यायालय पहले ही विस्तृत दिशा निर्देश बना चुका है।
न्यायालय की इस व्यवस्था के बाद देखना यह है कि क्या सदन में सदस्यों द्वारा मंत्रियों के हाथ् से उनके बयान या जवाब लेकर फाड़ने अथवा विरोध प्रकट करने के दौरान सदन में बैनर और पर्चे उछालना भी इसी श्रेणी में आएगा या नहीं है।
शीर्ष अदालत के न्यायमूर्ति धनंजय वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम आर शाह की पीठ ने केरल विधानसभा में 2015 की घटना से संबंधित इस मामले में स्पष्ट किया है कि अपराध न्याय प्रक्रिया के अंतर्गत निर्धारित कानून के दायरे में ही विधायकों को आचरण करना होगा। न्यायालय ने कहा है कि निर्वाचित प्रतिनिधि होने के कारण विशेषाधिकार और इम्यूनिटी प्राप्त होने के नाम पर वे कानून से ऊपर होने का दावा नहीं कर सकते।
संविधान के अनुच्छेद 194 (2) के तहत सदन के सदस्यों को प्राप्त इम्यूनिटी के बारे में भी न्यायालय ने स्थिति साफ कर दी है। न्यायालय ने इस प्रावधान की व्याख्या करते हुए कहा है कि इसका संबंध सदन में बगैर किसी भय या दबाव के अपने विचारों को अभिव्यक्त करने से है लेकिन आपराधिक कानून इसके दायरे में नहीं आते हैं।
न्यायालय ने कहा है कि विधानसभा में विपक्षी सदस्यों द्वारा विरोध प्रकट करने के अधिकार को हंगामा करने के समतुल्य नहीं रखा जा सकता है और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने को अभिव्यक्ति के अधिकार के इस्तेमाल के समान नहीं माना जा सकता है। विधायकों को जनता द्वारा उनमें व्यक्त विश्वास के मानदंडों के दायरे में काम करना चाहिए और जनता के विश्वास को ठेस नहीं पहुंचानी चाहिए
इस व्यवस्था के बाद सदन में तोड़फोड़ करने और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले सदस्यों के लिये आपराधिक कार्रवाई से बचने के लिये संविधान के अनुच्छेद 194 का सहारा लेना शायद संभव नहीं होगा। न्यायालय का मानना है कि इस अनुच्छेद का हवाला देकर आपराधिक मामले वापस लेने का कोई भी प्रयास नागरिकों के साथ धोखा होगा।
शीर्ष अदालत पहले ही एक अन्य मामले में कह चुका है कि कानून सबके लिए बराबर है और देश में अमीरों तथा पहुंच वालों और गरीबों के लिये अलग अलग कानून नहीं हो सकता।
केरल विधान सभा के मामले में भी न्यायालय ने इसी सिद्धांत को दोहराया है कि अपराध न्याय प्रणाली सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होती है और सदन के सदस्यों को विशेषाधिकार और इम्यूनिटी प्राप्त होने के आधार पर सदस्यों को आम आदमी से ऊपर नहीं रखा जा सकता है।
शीर्ष अदालत ने सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने की स्थिति से निपटने के लिये 16 अप्रैल, 2009 को 10 दिशा निर्देश दिये थे जो तत्काल प्रभाव से लागू किये गये थे।
सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाए जाने की स्थिति में इस तरह की घटना में शामिल व्यक्तियों से नुकसान की भरपाई कराई जा सकती है। शीर्ष अदालत ने कहा था कि संपत्ति के नुकसान की भरपाई की प्रक्रिया में ऐसा जुर्माना किया जाना चाहिए जो दूसरों के लिये नजीर बने लेकिन उसकी राशि नुकसान से दोगुने से ज्यादा नहीं होनी चाहिए।
संशोधित नागरिकता कानून के विरोध में हुए आंदोलन के दौरान उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने इस फैसले का सहारा लेकर अनेक व्यक्तियों की संपत्ति कुर्क करने और सार्वजनिक स्थानों पर पोस्टर लगाने जैसी कार्रवाई की थी। सार्वजनिक स्थानों पर इस तरह के पोस्टर लगाने की राज्य सरकार की कार्रवाई की देश में कड़ी आलोचना भी हुई थी।
केरल विधानसभा में वाममोर्चा के तत्कालीन छह सदस्यों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई के प्रकरण में शीर्ष अदालत की व्यवस्था के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि राजनीतिक दल इस फैसले का ध्यान रखेंगे और सुनिश्चित करेंगे कि सदन में किसी भी स्थिति में उनके सदस्य विशेषाधिकार और इम्यूनिटी की सीमा नहीं लांघें।