नई दिल्लीः कहते हैं इतिहास अपने आप दोहराता है। भारत-फ्रांस की राफेल डील में करप्शन का जिन्न ठीक उसी तरह सामने आया है, जिस तरह 1987 में बोफोर्स डील ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार की नींद हराम कर दी थी। फ्रांस मीडिया में राफेल डील के कथित घोटाले का मामला सामने आने के बाद कांग्रेस ने केंद्र की मोदी सरकार पर तीखे हमले किए हैं और संयुक्त संसदीय समिति बनाने की मांग की है। 2016 में भारत-फ्रांस के बीच राफेल लड़ाकू विमान खरीदने के लिए 59000 करोड़ रुपये (7.8 बिलियन यूरो) की डील हुई थी। उस समय इस पर काफी विवाद हुआ। मोदी सरकार ने कहा था कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर इस डील की शर्तों को सार्वजनिक नहीं कर सकती। मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा था और सुप्रीम कोर्ट ने तब मोदी सरकार के रुख को सही ठहराया था। लेकिन फ्रांस की मीडिया ने इसमें जो सनसनीखेज खुलासे किए हैं, उसने राफेल डील को लेकर तमाम तरह के शक पैदा कर दिए हैं। कांग्रेस ने इस मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) बनाने की मांग सीधे प्रधानमंत्री से की है।
क्या है पूरा मामला
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राफेल की कहानी शुरू होती है 2007 से। यूपीए शासनकाल में डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने भारतीय वायुसेना के लिए 126 लड़ाकू विमान खरीदने के लिए अंतरराष्ट्रीय टेंडर आमंत्रित किए थे। इस टेंडर प्रक्रिया में फ्रांस की कंपनी दसां (Dassault) के राफेल और यूरोफाइटर के टाइफून दौड़ में सबसे आगे थे। 2012 में टेंडर खोले गए। 12 दिसम्बर 2012 को राफेल बनाने वाली कंपनी दसां ने प्रति विमान 526.1 करोड़ की बोली लगाई। डॉ. मनमोहन सिंह के समय में बातचीत चलती रही लेकिन डील फाइनल नहीं हुई।
2014 में सरकार बदल गई। भाजपा सत्ता में आ गई और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने।
राफेल और भारत सरकार के बीच डील पर फिर से बातचीत शुरू हुई। प्रधानमंत्री मोदी फ्रांस की यात्रा पर गए। उस समय राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद थे, जबकि मौजूदा राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन उस समय वित्त मंत्री थे। ओलांद ने मोदी का जबरदस्त स्वागत किया। 2016 में दसां ने नए सिरे से 36 राफेल विमान बेचने के लिए 59000 करोड़ की डील की। एक विमान की कीमत करीब 1670 करोड़ रुपये रखी गई। यूपीए समय की डील की बातचीत में सरकारी क्षेत्र की कंपनी हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स शामिल थी लेकिन मोदी सरकार के समय जो डील हुई उसमें अनिल अंबानी कंपनी रिलायंस इन्फ्रास्ट्रक्चर शामिल थी, जिसके पास इससे पहले किसी भी तरह का डिफेंस का सामान बनाने का अनुभव नहीं था।
फ्रांस के मीडिया का अहम रोल
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फ्रांस के एक एनजीओ शेरपा ने 2018 में फ्रांस सरकार से भारत-फ्रांस राफेल डील में दलाली का आऱोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई। उस समय फ्रांस में ऐसे मामलों की कानूनी संस्था पब्लिक प्रॉजिक्यूशन सर्विस (पीएनएफ) ने शेरपा की जांच की मांग खारिज कर दी। अप्रैल 2021 में फ्रांस के मीडियापार्ट ने दस्तावेजों के आधार पर राफेल डील में कथित करप्शन के मामले को छापना शुरू कर दिया। पूर्व राष्ट्रपति ओलांद के खिलाफ भ्रष्टाचार के कई और भी मामले उजागर हुए। इस बीच पीएनएफ के नए चीफ जीन फ्रेंकोइस बोहर्ट ने मीडियापार्ट के खुलासे के आधार पर जांच का आदेश दे दिया। 14 जून से पीएनएफ ने बाकायदा इसकी जांच शुरू कर दी है।
मीडियापार्ट के आरोपों के आधार पर ही कांग्रेस हमलावर है। मोदी सरकार की असली चिंता कांग्रेस नहीं, बल्कि फ्रांस की संवैधानिक संस्था पीएनएफ है। जिसका फैसला आने पर अगर करप्शन का मामला सही पाया गया तो भाजपा सरकार की मुसीबत बढ़ सकती है।
कौन-कौन हैं जांच के दायरे में
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फ्रांस में पीएनएफ जो जांच कर रहा है, उसमें फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलांद, मौजूदा राष्ट्रपति, इमैनुएल मैक्रॉन, फ्रांस के रक्षा मंत्री, जो आज विदेश मंत्री हैं और अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस इन्फ्रा जांच के दायरे में है। अगर रिलायंस पर आरोप साबित हो गए यानी करप्शन का आरोप सही पाया गया तो उसकी आंच सीधे केंद्र सरकार तक पहुंचेगी। क्योंकि भारत की ओर से डील की पहल प्रधानमंत्री मोदी ने की थी और तब उसमें रिलायंस इन्फ्रा शामिल हुई थी। पीएनएफ ने शुरुआती जांच में ही इसे महाघोटाला कहा है।
मीडियापार्ट के आरोप
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कांग्रेस के प्रमुख नेता राहुल गांधी ने शनिवार को एक ट्वीट किया, जिसमें लिखा है – चोर की दाढ़ी। बता दें कि दरअसल यह एक मुहावरा है, जिसकी पूरी लाइन है – चोर की दाढ़ी में तिनका। जाहिर है कि राहुल का इशारा कहां है। राहुल और कांग्रेस पहले भी राफेल डील में भ्रष्टाचार के आरोप लगा चुके हैं, जिनकी पुष्टि अब मीडियापार्ट भी कर रहा है। पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने शनिवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस करके मीडियापार्ट के खुलासे के बारे में विस्तार में विस्तार से बताया।
मीडियापार्ट ने राफेल डील की कुछ प्रमुख बातें बताईं, जो चौंकाती हैं।
- जो डीआरएएल कंपनी बनाई गई, दसां रिलायंस एरो स्पेस लिमिटेड उसमें रिलायंस 51 प्रतिशत मालिक है और जो दसां है, वो 49 प्रतिशत मालिक है।
- इस कंपनी में दोनों भागीदारों द्वारा रिलायंस और दसां द्वारा 169 मिलियन यूरो इनवेस्टमेंट अधिक से अधिक करने का निर्णय किया गया। परंतु दसां जो 49 प्रतिशत हिस्सेदार है, वो 169 मिलियन यूरो में से 159 मिलियन यूरो लाने के लिए बाध्य होगी और 51 प्रतिशत की मालिक रिलायंस केवल 10 मिलियन यूरो लाएगी।
- इस समझौते का क्लाज 4.4.1 जो दसां और रिलायंस के बीच है, उसमें जहाज बनाने की सारी तकनीक, सारी विशेषज्ञता तो दसां एविएशन लाएगी, तो फिर रिलायंस क्या लाएगी। रिलायंस लाएगी मार्केटिंग फार प्रोग्राम एंड सर्विसेज विद गवर्मेंट ऑफ इंडिया। कांग्रेस और सुरजेवाला का सवाल है कि ये कौन सी सर्विस विद गवर्मेंट ऑफ इंडिया थी जो रिलायंस लेकर आ रही थी?
4, 25 मार्च, 2015 को दसां के सीईओ एरिक ट्रैपियर बैंगलोर आते हैं और भारतीय वायु सेना के प्रमुख एवं एचएएल के प्रमुख की मौजूदगी में दसां और एचएएल के समझौते की पुष्टि करते हैं। पर 24 घंटे में ही 26 मार्च, 2015 को दसां एविएशन अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस इन्फ्रा से अपना नया एग्रीमेंट एमओयू साइन कर लेती है। ये 15 दिन पहले है यानि 10 अप्रैल, 2015 से पहले। ये वो तारीख है जब प्रधानमंत्री मोदी यकायक फ्रांस बिना किसी को बताए गए और 7.8 बिलियन डॉलर के 36 राफेल एयरक्राफ्ट खरीदने का निर्णय कर दिया।
- स्वाभाविक तौर से इस समझौते के बाद भारत सरकार की कंपनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड जो जहाज बनाती आई है, उसको राफेल सौदे से बाहर कर दिया गया।
सबसे गंभीर आरोप
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जब भी कोई रक्षा सौदा होता है तो उसकी कुछ शर्तें होती हैं। इसे डिफेंस प्रक्योरमेंट प्रॉसिजर कहा जाता है। इसकी शर्तों में साफ लिखा है कि किसी रक्षा सौदे में ना कोई बिचौलिया हो सकता, ना भ्रष्टाचार हो सकता, ना कमीशन दिया जा सकता। जब 36 एयरक्राफ्ट का सौदा हुआ, तो रक्षा मंत्रालय ने कहा था कि यह एंटी करप्शन क्लाज रखना अनिवार्य है। परंतु फ्रांस सरकार और दसां ने कहा कि हम ये एंटी करप्शन क्लॉज नहीं रखेंगे और सितंबर, 2016 में भारत सरकार ने उनकी यह बात मान लिया।
सुरजेवाला ने कहा कि इस भ्रष्टाचार विरोधी क्लाज को हटा देने से यह मामला और भी ज्यादा संदेह के घेरे में आ गया है। इसलिए सवाल बड़ा सीधा है कि अब भ्रष्टाचार की परतें खुल चुकी हैं। पहली नजर में ही राफेल स्कैम सामने है। राफेल में भ्रष्टाचार सामने है। सरकारी खजाने को चूना लगाना सामने है और देशहित का विरोध करना या देशद्रोह सामने है। तो ऐसे में क्या प्रधानमंत्री सामने आकर अब राफेल घोटाले की जेपीसी जांच करवाएंगे?
सुरजेवाला ने कहा कि जिस घोटाले और गड़बड़झाले के सारे तार हमारे मुल्क में जुड़े हैं, वहाँं जांच क्यों ना हो? कल को वहाँं भ्रष्टाचार साबित हो गया, तो वो फैसला हमारी अदालत पर तो लागू नहीं, तो इसलिए हमें तो अपनी जांच करनी ही पड़ेगी।
19 जुलाई से शुरू होने वाले संसद के मॉनसून सत्र में इस मुद्दे पर हंगामा होने के आसार हैं।
(यूसुफ किरमानी वरिष्ठ संवाददाता और राजनीतिक विश्लेषक हैं)
-इंडिया न्यूज स्ट्रीम