अदालतें भी निभा सकती हैं ‘सत्य आयोगों’ की भूमिका : जस्टिस चंद्रचूड़

नई दिल्ली, 29 अगस्त (आईएएनएस)| सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने शनिवार को कहा कि अदालतें ‘सत्य आयोगों’ की भूमिका निभा सकती हैं, क्योंकि उनके पास उचित प्रक्रिया के बाद, इसमें शामिल सभी पक्षों से जानकारी का दस्तावेजीकरण करने की क्षमता है। उन्होंने विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्मो के माध्यम से झूठ और नकली समाचारों के प्रसार में कई गुना वृद्धि की पृष्ठभूमि में लोकतंत्र में सच्चाई के महत्व पर जोर दिया।

जस्टिस चंद्रचूड़ छठे एमसी छागला मेमोरियल ऑनलाइन लेक्चर के हिस्से के रूप में ‘स्पीकिंग ट्रुथ टू पावर: सिटीजन्स एंड द लॉ’ विषय पर अपनी बात रख रहे थे। उन्होंने कहा कि सत्य एक साझा ‘सार्वजनिक स्मृति’ बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिस पर भविष्य में एक विकसित राष्ट्र की नींव रखी जा सकती है।

उन्होंने कहा, “यह इस कारण से है कि कई देश एक अधिनायकवादी शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने या मानवाधिकारों के उल्लंघन से भरी अवधि से बाहर आने के तुरंत बाद सत्य आयोग स्थापित करने का विकल्प चुनते हैं।”

उन्होंने आगे कहा, ये आयोग भविष्य की पीढ़ियों के लिए पहले के शासनों और उल्लंघनों के ‘सच्चाई’ को दस्तावेज, रिकॉर्ड और स्वीकार करने के लिए कार्य करते हैं, ताकि न केवल बचे लोगों को रेचन प्रदान किया जा सके बल्कि भविष्य में इनकार करने की किसी भी संभावना को भी रोका जा सके।

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “एक अलग संदर्भ में, यह भूमिका अदालतों द्वारा भी निभाई जा सकती है, जिसमें शामिल सभी पक्षों की जानकारी का दस्तावेजीकरण करने की क्षमता है। हमारे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लिए गए कोविड-19 महामारी के स्वत: संज्ञान में हमने महामारी के संदर्भ में इस भूमिका को स्वीकार किया है।”

उन्होंने कहा, “हालांकि, लोकतंत्र के साथ सच्चाई का जो रिश्ता है, वह तलवार और ढाल दोनों का है। उन्होंने जोर देकर कहा कि व्यापक विचार-विमर्श की गुंजाइश, विशेष रूप से सोशल मीडिया के युग में, कई सत्य को इतना उजागर करता है कि ऐसा लगता है कि हम ‘झूठ के युग’ में रहते हैं, और यह लोकतंत्र की नींव को हिला देता है।

उन्होंने कहा, “नागरिकों को कम से कम उन बुनियादी तथ्यों पर आम सहमति पर पहुंचना चाहिए जो सामूहिक निर्णय लेने के लिए विज्ञान और समाज दोनों द्वारा समर्थित हैं।”

जस्टिस चंद्रचूड़ ने समलैंगिक सेक्स और गर्भपात को वैध बनाने पर लोकतंत्र के रवैये का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि भारत वर्तमान में समान-लिंग संबंधों को सामान्य करने की दिशा में परिवर्तन कर रहा है, दुनिया भर के दस से अधिक देशों में अभी भी समलैंगिकता के लिए मौत की सजा का प्रावधान है।

उन्होंने कहा, “एक अन्य उदाहरण पर विचार करते हुए, हम ध्यान दे सकते हैं कि वर्ष 1971 में भारत द्वारा गर्भपात को वैध बनाने के चालीस साल बाद, अधिकांश लैटिन अमेरिकी देशों ने अभी तक इसे वैध नहीं बनाया है। इसलिए, जबकि दुनिया के एक हिस्से के लिए ‘सच्चाई’ यह होगी कि एक भ्रूण को जीवन का अधिकार होता है, फिर भी दूसरे के लिए, यह एक ‘झूठा’ दावा होगा।”

–आईएएनएस

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