सांसद वरुण गांधी और उनकी मां मेनका गांधी को लखीमपुर खीरी हिंसा और किसानों के मसले पर लगातार उत्तर प्रदेश की योगी सरकार से अलग राय रखने की सजा के रूप में भाजपा के राष्टीय कार्यपरिषद से अलग करने के निर्णय को देखा जा रहा है। उधर राजनीतिक दल के तौर पर लखीमपुर की घटना के बाद से प्रियंका गांधी की पहलदमी सबसे तेज दिखी।ऐसे में लखीमपुर हिंसा के बाद उत्पन्न हुई स्थिति के बीच एक नई राजनीतिक परिस्थति बनते दिख रही है। जिसमें कयास लगाया जा रहा है कि भाजपा नेतृत्व से नाराज चल रहे वरूण गांधी अपनी बड़ी बहन प्रियंका गांधी बढेरा का साथ निभाने व तराई क्षेत्र के बदलते राजनीतिक माहौल को अपने पक्ष में साधने के लिए कांग्रेस पार्टी के साथ खड़े हो सकते हैं।
गांधी परिवार के राजनीतिक अतित पर नजर दौड़ाएं तो हम देखते हैं कि आजादी के बाद यहां से देश को विभिन्न चरणों में तीन प्रधानमंत्री दिए। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए ही उनके बेटे राजीव गांधी व संजय गांधी के परिवार में दरार पड़ गई। कहा जाता हैं जुन 1980 में एक विमान हादसे में संजय गांधी की मौत हो गई। इसके बाद से संजय की पत्नी मेनका गांधी की इंदिरा गांधी के रहते हुए ही उपेक्षा होने लगी।जिसका नतीजा रहा कि मेनका अपने बेटे वरूण को लेकर हमेशा के लिए अपना घर छोड़ दी।
वक्त के साथ ये रिश्तों में पड़ी दरार के चार दशक गुजर चुके हैं। इस बीच कांग्रेस की राजनीतिक पराभव के बाद भाजपा की मजबूत उपस्थिति में मेनका गांधी एक प्रमुख चेहरा रही। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मेनका गांधी ने केंद्रीय मंत्री की भूमिका निभाई। वर्ष 2014 तक जब भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह होते थे तो उस वक्त तक वरुण गांधी को पार्टी के मामलों में काफी महत्व दिया था। राजनाथ सिंह के कार्यकाल में वह पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव भी बने थे। लेकिन जैसे-जैसे पार्टी पर अमित शाह की पकड़ मजबूत होती गई वरुण किनारे किए जाते रहे।
अपुष्ट रिपोर्ट में कहा जाता है कि 2014 के आम चुनाव में वरुण गांधी से अमेठी और रायबरेली में राहुल और सोनिया गांधी के खिलाफ प्रचार करने को कहा गया था लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। यहीं से भाजपा नेतृत्व और वरुण गांधी के बीच दूरियां बढ़ने लगीं। हालांकि मोदी के पहले कार्यकाल में मेनका गांधी को कैबिनेट में जगह मिली लेकिन 2019 में वह किनारे कर दी गईं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में कैबिनेट मंत्री रहीं मेनका गांधी को मोदी 2.0 में कोई जगह नहीं मिली। लगातार कई बार से सांसद वरुण गांधी को भी को अहम जिम्मेदारी नहीं दी गई। जबकि एक समय वरुण गांधी का नाम उत्तर प्रदेश में भाजपा के संभावित मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में होती थी।
किसान आंदोलन के साथ खड़े दिख वरूण गांधी
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल से ही गांधी परिवार के ये दूसरे वारिस खुद को भाजपा के भीतर उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। इस बीच किसान आंदोलन को लेकर भाजपा नेतृत्व के राय से वरूण गांधी का स्टैंड हमेशा अलग दिखा। गन्ना के सरकारी खरीद मूल्य को लेकर वरूण गांधी ने पत्र लिखते हुए 400 रूपये करने की मांग की। इसको लेकर वे मीडिया तक में गए। हालांकि योगी सरकार ने अंततः मात्र 25 रूपये की बढ़ोतरी कर 350 रूपये ही घोषित किया। इसके बाद लखीमपुर हिंसा में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री व उनके बेटे को आरोपित किए जाने के पूर्व से ही वरूण इनको कठघरे में खड़ा करते दिखे। यहां तक की इनकी संलिप्तता को साबित करनेवाली वीडियो को भी टयूट किया। जिसके बाद ही भाजपा की घोषित की गई नई केंद्रीय कार्यसमिति से वरूण गांधी व उनकी मां मेनका को बाहर कर दिया गया है। इसके बाद भी वरूण अपने स्टैंड पर डटे हुए दिख रहे हैं। उन्होंने तो दो दिन पूर्व एक टयूट जरीये कहा कि लखीमपुर में किसान आंदोलन को कुचलने के बहाने हिंदू-सिख दंगा कराने की साजिश दिख रही थी।
यूं ही नहीं दिख रहा वरुण गांधी का यह बगावती तेवर
राजनीति में कहा जाता है कि कोई स्थाई दोस्त व दुश्मन नहीं होता है। यह सभी राह तय होता है उनकी राजनीतिक जमीन से। वरूण गांधी के अगर बदले हुए राजनीतिक तेवर की चर्चा करें तो हम देखेंगे की कभी वे यूपी में फायर ब्रांड नेता के रूप में नजर आ रहे थे। योगी आदित्यनाथ के पूर्व वरूण को मुख्यमंत्री के प्रमुख दावेदार के रूप में भी देखा जाने लगा था।उस दौरान ये अपने बयानों को लेकर बड़ा हिंदुत्व का चेहरा नजर आने लगे थे। इनके बिगड़े बोल के चलते चुनाव के दौरान निर्वाचन आयोग को कार्रवाई भी करती पड़ी थी। अब उनके राजनीतिक जमीन की बात करें तो वे पीलीभीत के जिस इलाके से संसद में प्रतिनिधित्व करते हैं वह तराई का इलाका सिख बहुल है। उधर पिछले दस माह से किसान आंदोलन के साथ सर्वाधिक मजबूती से सिख समुदाय के लोग ही खड़े हैं। जिनका भाजपा सरकार के रूख को लेकर गहरी नाराजगी है। ऐेसे में वरूण गांधी का किसान आंदोलन के प्रति प्यार जताना राजनीतिक मजबूरी भी कही जा सकती है। सही मायने में कहें तो यह मजबूरी ही उनकी राजनीतिक थाती है। जिसे किसी भी हालत में वे बचाए रखना चाहेंगे। किसान आंदोलन के प्रति उनकी सहानुभूति का परिणाम ही वरूण व उनकी मां को पार्टी नेतृत्व द्वारा कार्यसमिति से बाहर किए जाने को माना जा रहा है। ऐसे में उनके बगावती तेवर से इंकार नहीं किया जा सकता।
हालात को देख कांग्रेस पार्टी के करीब आने के लग रहे कयास
गांधी परिवार की चैथी पीढ़ी यानी राहुल-प्रियंका और वरुण गांधी भी सार्वजनिक रूप से कभी भी साथ नहीं दिखे हैं। लेकिन, कहा जाता है न कि राजनीति में कुछ भी संभव है। अपुष्ट रिपोर्ट में दावा किया जाता है कि वरुण गांधी और उनकी चचेरी बहन प्रियंका के बीच रिश्ते सबसे बेहतर हैं। दूसरी तरफ प्रियंका उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए जमीन तैयार करने में जुटी हैं। ऐसे में परिस्थितियों को देखते हुए इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि वरुण कांग्रेस का दामन थाम लें। इससे कांग्रेस को उत्तर प्रदेश के तराई इलाके में एक प्रभावी नेता मिल सकता है। इसके साथ ही कांग्रेस पार्टी का भी युवा नेतृत्व को अपने पक्ष में जोड़ने की मुहिम को और गति मिलेगी।
बहरहाल इतना तय हो गया है कि ना तो वरुण को बीजेपी पसंद है ना ही बीजेपी को वरुण गांधी। बस प्रतीक्षा यही है कि क्या बीजेपी उन्हें पार्टी से निष्कासित करेगी या फिर वह स्वयं बीजेपी छोड़ेंगे। वरुण शायद ऐसा नहीं करें। अगर उन्होंने पार्टी छोड़ी तो उनकी लोकसभा सदस्यता भी चली जाएगी और फिलहाल वह उपचुनाव लड़ने के मूड में नहीं हैं। पर जिस तरह वह इन दिनों राहुल और प्रियंका के सुर में सुर मिलाते दिख रहे हैं, कोई आश्चर्य नहीं होना चहिये कि जल्द ही वह अपने खानदानी कांग्रेस पार्टी में शामिल हो सकते हैं।
इंडिया न्यूज स्ट्रीम