क्या मुकदमों का फैसला 3 साल के भीतर संभव हो पाएगा?

देश की अदालतों में करोड़ों मुकदमे लंबित होने से चिंतित सरकार चाहती है कि मुकदमो का फैसला तीन साल के भीतर होना चाहिए। सरकार का विचार है कि इससे ज्यादा विलंब की वजह से इसके नतीजे वादकारियों के लिए बेमानी हो जाते हैं। सरकार यह भी चाहती है कि प्रधान न्यायाधीश को इस ओर ध्यान देना चाहिए।

केन्द्र सरकार का इस तरह का विचार सुनने में भले ही अच्छा लगे लेकिन हकीकत में यह मृग मरीचिका जैसा ही है क्योंकि सरकार न्यायपालिका के लिये बुनियादी सुविधाओं में वृद्धि करने और अदालतों की संख्या और न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने के लिए कभी भी बहुत ज्यादा गंभीर नजर नहीं आती है।

वैसे भी जब देश में तीस-तीस साल से मुकदमे लंबित हैं और दस दस साल से अदालत में आरोप पत्र दाखिल नहीं हो तो तीन साल में मुकदमों के फैसले की कल्पना कैसे की जा सकती है? क्या यह व्यावहारिक है?

साथ एक सवाल यह भी है कि अकेले प्रधान न्यायाधीश या सारे न्यायाधीशों के मिलकर प्रयास करने से क्या होगा जब न्यायपालिका में मुकदमों के निपटारे के लिये आवश्यक बुनियादी सुविधाएं और पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश, अदालत का स्टाफ और अदालत कक्ष ही नहीं होंगे।

न्याय व्यवस्था को दुरूस्त बनाने और अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या घटाने के लिये सरकारों को इच्छा शक्ति का परिचय देना होगा क्योंकि अक्सर यह देखा गया है कि राज्य सरकारें न्यायपालिका से संबंधित मामले में धन के अभाव का रोना रोने लगती हैं।

देश की अदालतों में इस समय 4,01,83,757 लंबित हैं जिनमें एक साल से ज्यादा पुराने मुकदमों की संख्या 3,09,85,596 है। इनमें 1,01,339 मुकदमे 30 साल से ज्यादा पुराने हैं जबकि 4,85,269 मुकदमे 20 से 30 साल पुराने हैं। इसी तरह, 62,20,987 मुकदमे तीन से पांच साल पुराने हैं।

इसी तरह, उच्च न्यायालयों में 56,37,986 लंबित हैं जबकि इनमें 91,483 मुकदमे 30 साल से ज्यादा पुराने हैं और 1,46,729 मुकदमे 20 से 30 साल पुराने हैं।

उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 1098 स्वीकृत पदों में से 461 रिक्त हैं जबकि अधीनस्थ अदालतों में हमेशा ही 25 फीसदी तक न्यायाधीशों के पद रिक्त रहते हैं।

लंबित मुकदमों के आंकड़े और न्यायालयों में न्यायाधीशों के रिक्त पद अपने आप में ही न्यायपालिका और जनता को त्वरित न्याय दिलाने की सरकार की गंभीरता को बयां कर रहे हैं।

कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने हाल ही में एक कार्यक्रम में प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण की उपस्थिति में कहा कि सरकार चाहती है कि मुकदमों का निपटारा तीन साल के भीतर हो और इसके लिए वह कई बैठकें कर चुकी है। इस संबंध में कोई न कोई रास्ता निकालने का प्रयास किया जा रहा है ताकि आम जनता के लिए प्राथमिकता पर न्याय सुनिश्चित किया जा सके।

इसी समारोह में प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण ने बहुत ही साफगोई से कहा, ‘‘मैं कोई तेंदुलकर नही हूं। उसे भी भारत की जीत के लिये टीम की जरूरत होती थी।’’ प्रधान न्यायाधीश के इस कथन में सरकार के लिए स्पष्ट संकेत था। न्यायाधीशों के रिक्त पदों पर प्राथमिकता के आधार नियुक्तियां की जाए और बुनियादी सुविधाएं बढ़ाई जाएं।

कई बार तो ऐसा महसूस होता है कि सरकार ही शायद नहीं चाहती कि स्वतंत्र और निष्पक्षता की छवि वाली देश की न्यायपालिका की स्थिति में सुधार हो। इसका अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि शीर्ष अदालत ने सांसदों और विधायकों के खिलाफ सालों से लंबित आपराधिक मुकदमों की तेजी से निपटारे के लिये विशेष अदालतें गठित करने का आदेश दिया। लेकिन इस आदेश पर अमल के मामले में सरकार का रवैया काफी ढुलमुल रहा।

शीष अदालत ने माननीयों के खिलाफ लंबित मुकदमों की सुनवाई एक साल के भीतर पूरी करने और इसके लिए पर्याप्त संख्या में विशेष अदालतें गठित करने का निर्देश दिया था। लेकिन हकीकत में पर्याप्त संख्या में अदालतों की स्थापना नहीं हुई और सांसदों तथा विधायकों के खिलाफ लंबित मामलों सुनवाई भी तेजी से नहीं हो पायी है।

सरकार ने संसद में बजट सत्र के दौरान बताया था कि देश में अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों के 24, 247 पद स्वीकृत हैं लेकिन इनमें रिक्त स्थानों पर नियुक्तियां नहीं होना न्यायिक काम में विलंब पैदा करने का एक प्रमुख कारक बनता जा रहा है। स्थिति यह है कि अधीनस्थ अदालतों में हमेशा ही न्यायाधीशों के 20 से 25 प्रतिशत स्थान रिक्त रहते हैं।

इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि अधीनस्थ अदालतों का संबंध है तो संविधान के अनुच्छेद 235 के अंतर्गत जिला और अधीनस्थ न्यायिक सेवा के सदस्यों पर संबंधित राज्यों के उच्च न्यायालयों का प्रशासनिक नियंत्रण होता है।

संविधान के अनुच्छेद 309 के साथ 233 और 234 के अंतर्गत राज्य सरकार को उच्च न्यायालय की सलाह से राज्य न्यायिक सेवा में न्यायिक अधिकारियों की नियुक्तियों , पदोन्नति और आरक्षण आदि से संबंधित नियम तैयार करने का अधिकार प्रदान किया गया है। राज्यों में न्यायिक अधिकारियों की भर्ती संबंधित उच्च न्यायालय करते हैं। उच्च न्यायालय राज्य लोक सेवा आयोग की सलाह से यह काम करते हैं। अधीनस्थ न्यायिक सेवाओं से संबंधित मामले में केन्द्र सरकार की कोई भूमिका नहीं होती है।

अधीनस्थ अदालतों में लंबित मुकदमों और न्यायाधीशों के रिक्त पदों से उत्पन्न समस्या की गंभीरता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इस मामले में राज्य सरकारों और उच्च न्यायालयों की कार्यशैली से असंतुष्ट उच्चतम न्यायालय ने स्वयं ही इसकी निगरानी का काम शुरू किया। शीर्ष अदालत ने राज्य सरकारों को फटकार लगाई और उच्च न्यायालयों को आवश्यक निर्देश दिये। इसके बाद, अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों की प्रक्रिया ने थोड़ी गति पकड़ी है।

केन्द्र सरकार अगर वास्तव में लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या से चिंतित है तो उसे युद्ध स्तर पर यह सुनिश्चित करना होगा कि राज्यों में अपेक्षित संख्या में अधीनस्थ अदालतों की संख्या बढ़ाई जाये, अदालतों में बेहतर बुनियादी सुविधाएं मुहैया हों और न्यायाधीशों के रिक्त पदों पर तेजी से नियुक्तियां हों। ऐसा नहीं करने पर तीन साल में मुकदमों का फैसला होने के विचार सिर्फ कल्पना ही रह जायेंगे और वादकारियों को विवादों के समाधान के लिये सालों इंतजार से राहत नहीं मिल पायेगी।

इंडिया न्यूज स्ट्रीम

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