डॉ. सुम्बुल वारसीः फर्ज और ईमानदारी से समझौता नहीं

नईं दिल्बुली: बुधवार, 21 जुलाई को सुखदेव विहार के उस घर में काफी लोग जा-आ रहे थे, जहां महीनेभर पहले कोई नहीं रहता था. दरअसल, करीब एक पखवाड़े पहले से वहां ऐसी शख्सियत रहने लगी जो डॉक्टरों की बिरादरी में काफी मकबूल है.

सुबह साढ़े नौ बजे से लोग आने लगे और रात बारह बजे तक मिलने-मिलाने का सिलसिला चलता रहा. उनमें ज्यादातर होली फैमिली हॉस्पिटल के डॉक्टर-नर्स और नौकरशाह तथा पत्रकार थे. दरअसल, वे सब पीडियाट्रिशियन और होली फैमिली हॉस्पिटल की पूर्व मेडिकल सुप्रिंटेंडेंट डॉ. सुम्बुल वारसी से ईद के मौके पर मिलने पहुंचे थे. एक-चौथाई सदी से भी ज्यादा अरसे तक डॉ. वारसी अस्पताल के सीनियर डॉक्टर्स रेजिडेंस में रहीं और उनके सारे दोस्त-अहबाब हर खुशी-गम के मौके पर उनके पास पहुंचते थे. सब उनके घर को ‘हेडक्वार्टर’ कहते थे. इस साल जून के आखिर में अस्पताल से रिटायर होने के बाद डॉ. वारसी ने ओखला के सुखदेव विहार में रहने का फैसला किया और एक तरह से वह ‘हेडक्वार्टर’ अस्पताल से सुखदेव विहार की कोठी में पहुंच गया.

होली फैमिली अस्पताल में सेवा के साढ़े तीन दशक
डॉ. सुम्बुल वारसी करीब 35 साल तक होली फैमिली अस्पताल में प्रैक्टिस करने के बाद जून के आखिर में रिटायर हो गईं. वे मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज से 1976 में एमबीबीएस करने के बाद आगे की पढ़ाई करने के‌ लिए ब्रिटेन चली गईं. वहां पोस्टग्रेजुएशन किया और वहीं नेशनल हेल्थ सर्विस की नौकरी मिल गई. डॉ. वारसी ने वहां विभिन्न अस्पतालों में काम किया और वहां नागरिकता की हकदार हो गईं. लेकिन उनके वालिद अबु सालिम साहब संयुक्त राष्ट्र संगठन (यूएनओ) की सर्विस से रिटायर होने के बाद दिल्ली के जाकिर नगर इलाके में अपनी अहल्या हमीदा सालिम के साथ रह रहे थे. तब तक डॉ. वारसी, डॉ. सुम्बुल सालिम या डॉ. एस. सालिम (जैसा कि पच्चीस साल पहले होली फैमिली में उनके रूम के बाहर लिखा था) के नाम से जानी जाती थीं. अपने वालदैन के साथ रहने के लिए वे 1986 में भारत लौट आईं और उसी साल फरवरी में होली फैमिली हॉस्पिटल जॉइन कर लिया. ब्रिटेन में पढ़ाई और नौकरी करने के बाद उनके पास दिल्ली के कई अस्पतालों से बढ़िया ऑफर थे, लेकिन उन्होंने मेडिकल मिशन सिस्टर्स के सेवाभाव से शुरू किए गए इस अस्पताल में इलाके के लोगों की खिदमत के इरादे से नौकरी शुरू की.

प्राइवेट प्रैक्टिस से इनकार
तब अस्पताल का नियम था कि कोई डॉक्टर दस साल नौकरी के बाद चाहे तो प्राइवेट प्रैक्टिस भी कर सकता है. 1996 में तत्कालीन एमएस ने उन्हें प्राइवेट प्रैक्टिस करने की छूट दे दी, लेकिन सिर्फ सेवाभाव से इस पेशे को चुनने वाली डॉ. वारसी ने होली फैमिली हॉस्पिटल में रहते हुए कभी इसके बारे में नहीं सोचा. यही नहीं, उदारीकरण के बाद दिल्ली में कई बड़े अस्पताल उभरे और उन्हें यहां के मुकाबले पांच गुना ज्यादा वेतन पर बुलाया गया, लेकिन उन्होंने साफ इनकार कर दिया.

इस बीच वे 1994 में जाकिर नगर की कोठी छोड़कर अस्पताल के पीछे बने सीनियर डॉक्टर्स रेजिडेंस में अपने वालदैन और शौहर नवाब अली वारसी तथा बेटे साहिल वारसी के साथ रहने लगीं. अस्पताल परिसर में उनका घर, खासकर शनिवाार की शाम को शहर के जाने-माने लोगों के मिलने-जुलने का ठिकाना बन गया. ब्यूरोक्रेट, डिप्लोमैट, पत्रकार, डॉक्टर और समाज के विभिन्न वर्गों के मशहूर लोग उनके वालदैन और शौहर से मिलने आते थे.

डॉ. वारसी के अब्बा, जिन्हें वे ‘बा’ कहती थीं, पढ़ने-पढ़ाने के पेशे से जुड़े थे. उन्होंने पहले अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ाया, नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च में काम किया और फिर यूएनओ के फूड ऐंड एग्रीकल्चरल ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) से जुड़कर अफ्रीका में काम किया. दिल्ली में तब भी वे ओखला में ही रहते थे. डॉ. वारसी की अम्मी हमीदा सालिम तब जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अर्थशास्त्र पढ़ाती थीं.

मामू मजाज ने रखा था नाम सुम्बुल
हमीदा सालिम उर्दू शायरी के जॉन कीट्स करार दिए गए असरारुल हक़ मजाज या मजाज लखनवी की छोटी बहन थीं. उनके ‘जग्गन भइया’ यानी मजाज साहब ने अपनी दो बहनों—सफिया अख्तर और हमीदा सालिम—को एएमयू में तालीम दिलाई और उनकी शादी भी कराई. सफिया अख्तर की शादी जांनिसार असख्तर से हुई और उनके दो बेटों—जावेद अख्तर और डॉ. सलमान अख्तर को आज दुनिया जानती है. सफिया अख्तर के इंतकाल के बाद दोनों भाई काफी समय तक अलीगढ़ में अपनी खाला हमीदा सालिम के साथ रहे. हमीदा सालिम के दो बच्चे—इरफान सालिम और सुम्बुल सालिम कजिन के साथ रहते थे. इरफान सालिम टेक्नोलॉजी बिजनेस में अमेरिका में जाने-माने व्यक्ति हैं. बहरहाल, चूंकि वे घर में सबसे छोटी थीं, सब उन्हें मुन्नी कहते थे, और आज तक डॉ. वारसी अपने घर में इसी नाम से जानी जाती हैं. इस मुन्नी का नाम नाम सुम्बुल उनके मामू मजाज ने रखा था और एएमयू में पढ़ चुके लोग इस शब्द और इसके मानी से वाकिफ होंगे क्योंकि उन्होंने अपनी यूनिवर्सिटी के तराने ‘सर शार-ए-निगाह-ए-नरगिस हूं, पाबस्ता-ए-गेसू-ए-सुम्बुल हूं’ को जरूर गाया-गुनगुनाया होगा. घर पर जानी-मानी हस्तियों के आने-जाने से अस्पताल को अपनी तरह का लाभ हुआ.

डॉक्टर हूं, दवा कंपनी की एजेंट नहीं
बहरहाल, डॉ. वारसी ने सीनियर कंसल्टेंट पीडियाट्रिशियन की हैसियत से लंबे अरसे तक होली फैमिली हॉस्पिटल में काम किया. उनकी प्रैक्टिस का तरीका देखकर वे लोग आज अपने बच्चों को उन्हीं से दिखाना चाहते हैं, जो कभी खुद बचपन उनके पेशेंट थे. वे बच्चों को ज्यादा दवा न देने के पक्ष में रहती हैं, न ही उनका बेजा टेस्ट करवाना चाहती हैं. यहां एक घटना से उनके काम का तरीका साफ हो जाएगा. अब से कोई आठ साल पहले गफ्फार मंजिल के एक शख्स अपने बच्चे को दिखाने के लिए उनके पास पहुंचे. डॉ. वारसी ने बच्चे को एग्जामिन किया और फिर उससे पूछा कि तुम दुकान का सामान खाते हो. उसके वालिद ने कहा कि यह चिप्स और टॉफियां ही खाता है, घर का खाना नहीं खाता. डॉ. वारसी ने बच्चे से कहा कि यह सब खाना बंद करो, वरना सुई लगा देंगे. वालिद को समझाया कि घर का खाना खिलाएं. उन्होंने कोई दवाई नहीं लिखी, बस यही सलाह लिख डाली. न कोई टेस्ट, न दवा. उन्होंने किसी से इसके बारे में बताया. यह बात डॉ. वारसी को मालूम हुई और उन्होंने कहाः ‘‘मैं कोई दवा कंपनी की एजेंट नहीं हूं. बच्चे को कुछ नहीं है, पैकेज्ड फूड में एडिटिव्ज की वजह से बच्चे का व्यवहार नॉर्मल नहीं था. इसके लिए कोई डॉक्टर दर्जन भर टेस्ट और दवा लिख देगा, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकती.’’ बच्चा उनकी सलाह पर चला और अब बिल्कुल ठीक है.

जच्चा-बच्चा केंद्र से सुपरस्पेशिएलिटी अस्पताल की ओर
उनके प्रोफेशनलिज्म को देखते हुए उन्हें दस साल पहले होली फैमिली हॉस्पिटल की मेडिकल सुप्रिंटेंडेंट बना दिया गया. लंबे अरसे तक अस्पताल से जुड़े होने की वजह से उन्हें मालूम था कि क्या-क्या करने की जरूरत है. जच्चा-बच्चा अस्पताल से इसे मल्टीस्पेशिएलिटी हॉस्पिटल की तरफ ले जाना था. विभिन्न मेडिकल फील्ड में विशेषज्ञता रखने वाले डॉक्टरों को जोड़ा और धीरे-धीरे अस्पताल में एमआरआइ, सीटीस्कैन और एकमो जैसी मशीनें लग गईं. मशहूर कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. मोहन नायर और उनकी टीम को बुलाकर कार्डियोलॉजी सेंटर खोला. हार्ट सर्जरी शुरू हो गई और किडनी ट्रांसप्लांट भी होने लगा. अस्पताल के डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ के आगे वे किसी भी नहीं सुनती थीं, जिससे वे हर डॉक्टर और नर्स की चहेती बन गईं. यही नहीं, कोविड के दौरान उन्होंने अस्पताल को पीपीई किट्स, दूसरे सामान और आरटी-पीसीआर टेस्ट के लिए मशीनें भी दिलाई. अलबत्ता अस्पताल ने इन मशीनों का अभी तक इस्तेमाल शुरू नहीं किया है. उन्होंने इस दौरान करीब से देखा कि किस तरह डॉक्टर कई बार बेजा जांच पर जांच लिखते हैं, कई बार नर्सिंग सेंटर और छोटे-मोटे अस्पताल के प्रमुख अपने यहां से जांच के बदले कमिशन तय करने आते थे, जिससे डॉ. वारसी साफ इनकार कर देती थीं. उनका कहना था कि आखिर, यह पैसा तो पेशेंट को ही भरना होगा. इसी तरह अपने पेशेंट पर किसी दवा के ट्रायल के सख्त खिलाफ थीं और दवा कंपियों की ओर से इसकी सिफारिश करने वाले लोग उनके सामने आने की हिम्मत नहीं करते थे.

एमएस रहते हुए डॉ. वारसी ने अस्पताल में हर चीज के लिए सिस्टम तैयार किया. रोगी एक बार अस्पताल आ जाए तो उसे इलाज और दूसरी सुविधाओं के लिए किसी तरह की पैरवी की जरूरत नहीं पड़ती थी. यह सिस्टम इतना कारगर था कि अस्पताल और रोगी, दोनों संतुष्ट थे. सिस्टम ही किसी संस्थान को आगे बढ़ाता है और ऐसा ही हुआ. होली फैमिली हॉस्पिटल अपने काम की वजह से सुर्खियों में रहने लगा

ओखला से खास लगाव
पिछले साल के आखिर तक एमएस के तौर पर उनके काम को अस्पताल का हर कर्मचारी याद करता है और हर डॉक्टर और नर्स उनका बेहद सम्मान करता है. पीडियाट्रिशियन के तौर पर वे जून में रिटायर हो गईं और अस्पताल कैंपस में करीब 27 साल रहने के बाद वहां से निकल गईं. उनके पास शहर के एक पॉश इलाके में अपने घर में रहने का विकल्प था लेकिन उन्होंने इसी इलाके में रहने का फैसला किया. दरअसल, वे बचपन में भी इस इलाके में रह चुकी हैं. बचपन में गुलमोहर एवेन्यू में रहती थीं और कुछ साल जामिया स्कूल में पढ़ चु जकी हैं. तब आज के गफ्फार मंजिल और नूरनगर की तरफ सन्नाटा हुआ करता था, और प्रोफेसर मुशीरुल हक (जामिया बारात घर के सामने की कोठी) की बिटिया और अपनी सहेली से मिलने जाती थीं तब उनके वालदैन साथ में खानसामे को भेजती थीं, क्योंकि तब यह इलाका सुनसान था. ताज्जुब नहीं कि यहां के लोगों से उन्हें खास लगाव है. जामिया से जुड़े काफी लोग उन्हें और उनके खानदान से वाकिफ हैं. इसके अलावा, वे इसी इलाके में अपनी सेवाएं देना चाहती हैं.

शिफ्ट होने के बाद वे अमेरिका में अपने बेटे साहिल और बहू मेग से मिलने जाना चाहती थीं, लेकिन हवाई सेवाएं बाधित होने की वजह से इंतजार कर रही हैं. जल्दी ही वे इलाके में फिर से बच्चों को देखना शुरू कर देंगी.

इंडिया न्यूज़ स्ट्रीम

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