महाराष्ट्र में नाटक चालू आहे

मराठी के मशहूर नाटककार विजय तेंदुलकर का नाटक खामोश अदालत चालू आहे या अदालत जारी है बेतरह याद आरहा है. महाराष्ट्र में नाटक जारी है. सत्ता गिराने और सत्ता बचाने का. मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के लिए इससे भी कहीं ज्यादा शिवसेना को बचाने का. सियासी तौर पर इससे बड़ी चुनौती उद्धव ठाकरे को पहले कभी नहीं मिली थी. महाराष्ट्र की सत्ता किस कवट लेती है यब तो आने वाला समय बताएगा लेकिन उद्धव ठाकरे इन सबके बीच किसी नायक की तरह उभरे हैं. हो सकता है वे सत्ता गंवा दें और पार्टी भी उनकी मुट्ठी से फिसल जाए (क्या पता कि जब तक यह रआकलन सामने आए महाराष्ट्र में बड़ा खेल हो जा

जाए). लेकिन उन्होंने सियासत में एक बजडी लकीर तो खींच ही डाली है और भाजपा के लिए इस लकीर को पार पाना आसान नहीं होगा.

एकनाथ शिंदे के कांधे पर सवार भाजपा महाराष्ट्र की सत्ता को साधने की हर जुगत में लगी है तो दूसरी तरफ़ सत्ता को छोड़ घर आ जाने की हिम्मत उद्धव ठाकरे ने दिखाई है. मुख्यमंत्री वे हैं लेकिन मुख्यमंत्री आवास छोड़ने में उन्होंने तनिक देर नहीं लगाई और ऐसा करते हुए बात की चिंता तक नहीं की कि लोग कहेंगे बिना लड़े मैदान छोड़ कर भाग गए. लोग भले कुछ भी कहें लेकिन इसे हार कर जीतना कहेंगे. इसलिए वे एक नायक की तरह उभरे हें. उद्धव ठाकरे हारकर भी विजेता बने हैं. मोदी-शाह और संघ जीतता भी है तो हार का दंश लेकर सत्ता भोगेगा. बेशर्मी से भरी इस सत्ता का दंश उन्हें बार-बार अपने आप में मारता रहेगा और उन एकनाथ शिंडे को भी ताउम्र चैन नहीं लेने देगा.

सवाल सत्ता पाने और खोने से ज्यादा इस बात को लेकर

लोगों के मन में है शिवसेना का क्या होगा. पार्टी बचेगा या खत्म हो जाएगी. शिवसेना का गठन मराठी अस्मिता को लेकर हुआ था. बाद में मराठी अस्मिता के सवाल को शिवसेना ने हटाकर हिन्दुत्व के मुद्दे से जोड़ दिया था. बाला साहब ठाकरे नब्बे के दशक में ही यह समझ गए थे कि शिवसेना अब मराठीवाद के मुद्दे पर आगे विस्तार नहीं ले पाएगी. मुंबई जहां शिवसेना सबसे ताकतवर है, वहां भी मराठीभाषी अल्पसंख्यक हो गए हैं. इसलिए बाला साहेब ठाकरे ने मराठी इसलिए बाला साहेब ठाकरे ने मराठी नारे के साथ ही हिन्दुत्व को अपना हथियार बना लिया. उद्धव ठाकरे बहुत सौम्य और अंतर्मुखी थे. जब राज ठाकरे बाला साहब ठाकरे के मी मराठी के जयघोष के साथ आगे बढ़ना चाहते थे, उद्धव ने मी मुंबईकर का नारा दिया. मी मुंबईकर यानी जो मुंबई का है, चाहे मराठी हो, गुजराती या बिहारी-उत्तर भारतीय या दक्षिण भारतीय. बाला साहब का उत्तराधिकारी राज ठाकरे को माना जाता था, लेकिन बाला साहब ने उद्धव में अपना उत्तराधिकारी देखा. हालांकि बहुतों ने इसे पुत्र मोह कहा. थोड़ी देर के लिए इसे मान भी लिया जाए लेकिन बाला साहेब को करीब से जानने वालों को पता है कि बाला साहेब के दो और बेटे थे. लेकिन उन्होंने किसी को सियासत की हवा तक लगने नहीं दी. उन दोनों की तुलना में राज ठाकरे को ही हमेशा तरजीह दी. लेकिन बाला साहेब राज ठाकरे और उद्धव के मूल अंतर को भी जानते थे. और वही अंतर आज सामने है. राज आक्रामक होकर भी महाराष्ट्र की राजनीति में हाशिए पर हैं और उद्धव सौम्य होकर भी सियासत के केंद्र में हैं. पिछले ढाई साल के मुख्यमंत्री काल की तारीफ करना शिवसेना के धुर विरोधी भी करते हुए नहीं अघाते हैं.

उद्धव ने संघ-भाजपा के अश्वमेध घोड़े को जिस तरह से बाड़े में कैद कर दिया, वह अपने आप में चकित करने वाला था. यह ठीक है शरद पवार उद्धव की सरकार के शिल्पकार रहे, लेकिन उद्धव की सूझबूझ को कोई भी नकार नहीं सकता. कोरोना के समय महाराष्ट्र को जिस तरह से संभाला वह अकल्पनीय है. उत्तर प्रदेश और दूसरे प्रदेशों में जहां ऑक्सीजन-अस्पताल के लिए हाहाकार था, महाराष्ट्र में सब कुछ नियंत्रण में रहा.

फिर हिन्दुत्व के मुद्दे पर भी भाजपा और राज ठाकरे को जिस तरह से पटकनी दी, उससे धुर विरोधी भी प्रभावित हुए. शिवसेना ने साफ कहा कि भाजपा और शिवसेना के हिन्दुत्व में अंतर है. वह अंतर लाउड स्पीकर वाले मुद्दे पर साफ तौर पर दिखा. राज ठाकरे- संघ और भाजपा ब्रिगेड के खुलेआम खम ठोंकने के बाद भी मुसलमानों में रत्ती भर भी किसी तरह का डर महाराष्ट्र में नहीं दिखा. राज्य में शिवसेना के सत्ता में आने के बाद भी सांप्रदायिक सौहार्द्र बना रहा.

कई राजनीतिक पंडित मानते हैं उद्धव की शिवसेना कमजोर हुई है और उसकी वजह है शिवसेना के मूल गुणधर्म आक्रामकता को कुंद करना. यह सच भी है कि उद्धव ने शिवसेना की नैसर्गिक संरचना में बदलाव किया है. उद्धव ने सत्ता को जागीर समझने के बजाय सत्ता को जनता की सेवा के तौर पर देखा. भय का माहौल बनाकर जनता को वश में रखने के बजाय शांति और सुरक्षा का माहौल बनाकर जनता को लोकतंत्र की वास्तविक राह पर ले चलने की कोशिश की है.

उद्धव का यह कहना कि आओ और मेरा इस्तीफा राज्यपाल के पास पहुंचाकर मुख्यमंत्री बन जाओ. यहां तक कि शिवसेना प्रमुख का पद भी छोड़ने को तैयार हैं, उद्धव ने अमानवीय होती राजनीति में एक नई नजीर पेश की है. चाल चेहरा और चरित्र का दम भरेने वाली भाजपा और संघ को आईना दिखाया और हिंदू होने का मतलब भी समझाया. उद्धव गांधी की राह पर चलते दिख रहे हैं. यह राह बाला साहेब की राह नहीं है लेकिन उद्धव जनते हैं कि गांधी की राह पर चल कर ही लोगों तक पहुंचा जा सकता है. बाला साहेब बेशक मराठीवाद और हिंदुत्व के मुद्दे पर कट्टर दिखते थे, लेकिन स्वभाव से वे बेहद संवेदनशील और बुद्धिमान थे. मनुष्यता उनके भीतर भी थी. वे क्षुद्र नहीं थे. उद्धव ठाकरे ने बाला साहेब के अंतर के बाल ठाकरे को आत्मसात किया है.

इसलिए जो इस सवाल से परेशान हैं कि शिवसेना बचेगी या खत्म हो जाएगी, वे गांठ बांध लें कि भविष्य की राजनीति इसी रास्ते होकर गुजरेगी. राहुल गांधी और उद्धव ठाकरे दोनों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. वैसे भी महाराष्ट्र की लड़ाई अब उद्धव ठाकरे से आगे निकल गई है. यह लड़ाई शरद पवार और कांग्रेस की लड़ाई बन गई है. एक तरफ मोदी-शाह हैं और दूसरी तरफ पवार-राहुल. आने वाले कुछ रोज महाराष्ट्र और देश की सियासत के लिए बहुत नाटकीय होंगे. हालांकि एक लड़ाई अब सड़कों पर भी लड़ी जाएगी और शिवसेना बनाम शिवसेना की इस लड़ाई में उद्धव ठाकरे को अपने आप को साबित करना है. वे कर पाएंगे, उम्मीद तो ऐसी ही है. फिलहाल तो नाटक चालू आहे, मंच भी है किरदार भी, इंतजार बस परदा गिरने का है.

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