नई दिल्ली। उर्दू में मशहूर नक़्क़ाद और स्कॉलर गोपीचंद नारंग नहीं रहे। कल उनका इंतकाल अमरीका के न्यूयार्क में हो गया। वह 92 वर्ष के थे। परिवार में पत्नी के अलावा बेटा है।
11 फरवरी 1930 को अविभाजित भारत में जन्मे नारंग उर्दू हिंदी की दुनिया के एक सितारे थे। आजादी के बाद उर्दू जुबान और तनक़ीद के विकास में अगर किसी एक शख्स का नाम लिया जाए तो वह गोपीचंद नारंग थे। शम्सुर रहमान फारुकी ,मोहम्मद हसन और गोपीचंद नारंग की तिकड़ी उर्दू तनक़ीद के तीन सितारे थे लेकिन दुनियावी अर्थों में शोहरत और बुलंदी सबसे अधिक नारंग साहब को हासिल हुई। उनकी करींब 85 पुस्तकें आयी थीं।
वे उर्दू अकेडमी के उपाध्यक्ष, साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष फिर अध्यक्ष ही नहीं बने बल्कि उन्हें पद्म श्री और पद्ममभूषण से भी नवाजा गया और पूरी दुनिया में उर्दू जगत में उनका नाम बहुत था । वह पहले ऐसे आलोचक थे जिनको जितना मुल्क के भीतर जाना जाता था उतना भारत से बाहर भी। वे पाकिस्तान, अरब देश, अमेरिका और कनाडा में उर्दू समाज मे जाने जाते थे और उनकी अंतरराष्ट्रीय पहचान थी।
अमेरिका के दो विश्विद्यालय विस्कॉसिन और मिनेसोटा में वे अतिथि प्रोफेसर रहे और पाकिस्तान के भी दो दो अवार्ड मिले थे। भारत मे उन्हें ग़ालिब अवार्ड और इकबाल सम्मान से नवाजा गया था।
उनके पिता धर्मचंद नारंग भी एक लेखक थे और जब भारत पाक विभाजन हुआ तो क्वेटा में पहले दंगे के कारण उन्होंने अपने बेटे गोपीचंद को दिल्ली भेज दिया था। नारंग 1947 में ही भारत आ गए थे जबकि उनके पिता बाद में 1956 में भारत आए।
नारंग ने यहीं रहकर दिल्ली कॉलेज से आइए किया और उसके बाद सेंट् स्टीफन कॉलेज में उर्दू बढ़ाया और वह बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय में उर्दू विभाग के रीडर और अध्यक्ष भी बने। वह जामिया में डीन और अतिथि प्रोफेसर बने।
उन्होंने जाकिर हुसैन की जीवनी लिखी तो अमीर खुसरो गालिब मीर बलवंत सिंह और फिर कृष्ण चन्द्र पर भी लिखी। कई भाषाओं के जानकार नारंग अंग्रेजी में भी फ़र्राट्स से लिख लेते थे। हिंदी के लेखको से भी उनका गहरा रिश्ता था और यही कारण था कि वह साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष और बाद में अध्यक्ष चुने गए।