मुंबई: पिछले साल कोविड-19 महामारी की पहली लहर से बुरी तरह प्रभावित बॉलीवुड को इस वर्ष से काफी उम्मीदें थीं लेकिन दूसरी लहर के कारण वह धराशायी हो गईं और साल में एक हजार से ज्यादा फिल्में बनाने वाले बॉलीवुड की गिनी-चुनी फिल्में ही थिएटरों का मुंह देख पाईं या ओटीटी स्पेस में ध्यान खींच पाईं जबकि दूसरी तरफ क्षेत्रीय सिनेमा ने ओटीटी स्पेस में खासकर काफी धूम मचाई।
छह महीनों में बॉलीवुड की सबसे बड़ी फिल्म ‘राधे‘ बुरी तरह पिटी। सलमान खान की फिल्म होने के बावजूद फिल्म न दर्शकों को लुभा पाई और न फिल्म समीक्षकों को। फिल्म की काफी आलोचना हुई। इस दौरान कुछ और बड़ी फिल्मों में राजकुमार राव, वरुण शर्मा और जान्हवी कपूर की ‘रूही‘, संजय गुप्ता निर्देशित जॉन अब्राहम, इमरान हाशमी स्टारर ‘मुंबई सागा‘, अभिषेक बच्चन की ‘बिग बुल‘ और विद्या बालन अभिनीत ‘शेरनी‘ रहीं। प्राइम अमेज़न पर रिलीज ‘शेरनी‘ को मिश्रित प्रतिक्रिया मिली।
एक सत्य घटना पर आधारित फिल्म लगभग डॉक्यूमेंट्री शैली में है और जंगल, जानवर, पर्यावरण, राजनीति को लेकर महत्वपूर्ण मुद्दे उठाती है। एक वन अधिकारी के रूप में विद्या बालन के सशक्त लेकिन संयत अभिनय की लेकिन खूब चर्चा हुई और कहा गया कि वह फिर अपने फॉर्म में लौट आई हैं। महामारी के डर से दर्शकों के सिनेमाघरों से दूर रहने के कारण जिन कुछ अन्य फिल्मों ने बिजनस तो ज्यादा नहीं किया पर सराहना हासिल की उनमें सीमा पाहवा निर्देशित ‘रामप्रसाद की तेरहवीं‘, परिणित चोपड़ा, अर्जुन कपूर अभिनीत व दिवाकर बनर्जी निर्देशित ‘संदीप पिंकी फरार‘, सान्या मल्होत्रा अभिनीत ‘पगलैट‘, चार शॉर्ट फिल्मों का संकलन ‘अजीब दास्तान्स‘आदि शामिल हैं।
‘रामप्रसाद की तेरहवीं‘ अभिनेत्री सीमा पाहवा की निर्देशक के रूप में पहली फिल्म है और फिल्म एक परिवार में एक मौत होने के तुरंत बाद माहौल को बड़े रियलिस्टिक तरीके से पेश करती है। सुप्रिया पाठक, नसीरुद्दीन शाह (छोटी सी भूमिका में), विक्रांत मैसी, कोंकणा सेन शर्मा, मनोज पाहवा, परमब्रत चटर्जी आदि कलाकारों के सहज अभिनय से सजी फिल्म दिल को छू लेती है। परिणित चोपड़ा की यूं तो तीन फिल्में एक के बाद एक इस साल रिलीज हुईं जिनमें ‘द गर्ल ऑन द ट्रेन‘, बैडमिंटन स्टार साइना नेहवाल की बायोपिक ‘साइना‘ और ‘संदीप पिंकी फरार‘ शामिल थीं। इनमें ‘संदीप पिंकी फरार‘ ने सबका ध्यान खींचा और इस फिल्म में उनके अभिनय की बहुत चर्चा हुई। ‘अजीब दास्तांस‘ की चार शॉर्ट फिल्मों में सबसे ज्यादा सराहना ‘गीली पुच्ची‘ ने बंटोरी। इसमें कोंकणा सेन शर्मा ने कई शेड लिये हुए गूढ़ किरदार को बेहद खूबसूरती से निभाया।
वेब सीरिज की बात करें तो ‘फैमिली मैन‘ का दूसरा सीजन, ‘अस्पायरंट्स‘ और सत्यजीत रे की चार कहानियों पर बनी ‘रे‘ शामिल हैं। फैमिली मैन 2 से मनोज वाजपेयी के वर्सेटाइल होने का एक और प्रमाण पेश किया। ‘रे‘ में भी सबसे ज्यादा चर्चा मनोज वाजपेयी अभिनीत ‘हंगामा क्यों है बरपा‘ की हुई। क्लेप्टोमैनिया जैसे विषय पर मनोज वाजपेयी के संग गजराज राव की जुगलबंदी के जादू के कारण अभिषेक चौबे निर्देशित यह फिल्म चार फिल्मों में से निर्विवाद रूप से दर्शकों की पहली पसंद रही।
ओटीटी स्पेस में सब टाइटल के साथ फिल्म देख पाने की सुविधा के कारण बॉलीवुड के विपरीत क्षेत्रीय सिनेमा ने निश्चित रूप से बाजी मारी है। इनमें आठ साल पहले आई दृश्यम का सीक्वल दृश्यम 2, दमघोंटू पितृसत्ता के खिलाफ टिप्पणी करती ‘द ग्रेट इंडियन किचन‘, और शेख्सपियर के मैकबैथ का एडाप्टेशन ‘जोजी‘ और ‘नयत्तू‘ (सभी मल्यालम), चेतन तम्हाणे की ‘डिसीपल‘ (मराठी), ‘मंडेला‘, ‘करनन‘ (तमिल) आदि शामिल हैं।
दृश्यम 2 मोहन लाल के करिश्मे का जीता-जागता प्रमाण है। धीमी शुरुआत के बाद फिल्म अपने असली रंग में आती है और क्लाइमैक्स दर्शकों के होश उड़ा देता है। ‘जोजी‘ की बात करें तो फरहाद फाजिल अभिनीत फिल्म लालच, अपराध और फिर अपराध बोध की कहानी में पितृसत्ता के खिलाफ बगावत का तड़का भी लगाती है। विशाल भारद्वाज की ‘मकबूल‘ के बाद जोजी मैकबेथ का सशक्त एडाप्टेशन है। वैसे इस साल अब तक की सबसे चर्चित फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन‘ ही रही है जो एक सामान्य व प्रसन्न लगने वाले प्रारंभिक वैवाहिक में एक औरत के किचन में दिन भर तरह-तरह के कार्यों के लंबे-लंबे दृश्य इतनी बार दिखाती है कि पितृसत्ता की पोल खुल जाती है और अंत में नायिका इसे चुनौती देती है और विद्रोह करती है।
—इंडिया न्युज़ इस्ट्रीम